…तो क्या समाज के शोषितों की बात करने वाली और दलित हित का झंडा बुलंद करने वाली बहुजन समाज की पार्टी बीएसपी ने भी सियासत का वही पुरानी राह पकड़ ली है। यानि परिवार मार्ग पर चल पड़ी है बीएसपी। मायावती के नेतृत्व में बैठक बुलाई तो सियासी समीकरण साधने के लिए थी लेकिन जब नतीजा निकला तो सामने आया कि यहां तो पारिवारिक गोटियां सेट हो रही थीं , तो आखिरकार बहनजी भी भाई-भतीजावाद के फेर में पड़ ही गईं। जो कभी सियासी विरोधियों को परिवारवाद का ताना देते नहीं थकती थीं वो आज खुद उसी राह पर निकल पड़ी हैं ।
मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को बीएसपी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया तो वहीं परिवार की अगली पीढ़ी के लिए भी बीएसपी में सीट आरक्षित हो गई है । आनंद कुमार के बेटे आकाश आनंद को नेशनल कोऑर्डनेटर बना दिया गया । अब बहुजन समाज की ‘बहनजी’ ने परिजनों को पार्टी में सर्वेसर्वा बनाने की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं यानि जो पार्टी समाज विशेष के शोषितो के उत्थान का दम भरती रही है, जिसका गठन ही कांसीराम ने समाज के आखिरी शख्स की आवाज़ बनने के लिए किया था। वहां अब एक परिवार का कब्जा दिखने लगा है।
बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांसीराम सत्ता को दलित की चौखट तक लाना चाहते थे। बहुजन समाज पार्टी ने आज सियासत में जो भी हासिल किया, उसमें उस मजबूत बुनियाद की सबसे अहम भूमिका रही,जिसे कांशीराम ने डीएस-4 के जरिए रखा था। इसके बाद कांशीराम ने 14 अप्रैल, 1984 को एक राजनीतिक संगठन बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की। डॉ बीआर अंबेडकर के बाद कांसीराम दलितों के सबसे बड़े नेता के तौर पर उभरे और नारादिया कि ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’। इसके पीछे उनका मकसद था कि सदियों से ग़ुलामी की जिंदगी जी रहे दलित समाज को सत्ता के सबसे ऊंचे ओहदे पर बिठाना, उसे ‘फ़र्स्ट अमंग दि इक्वल्स’ बनाना और मायावती के रूप में उन्होंने एक लिहाज से ऐसा कर भी दिखाया। लेकिन मायावती अपने सियासी गुरु के इस गुरुमंत्र को अपना नहीं पाईं कि कैसे कांसीराम ने खुद की मेहनत से खड़ी की पार्टी को मेरिट के आधार पर मायावती के हाथों में सौंप दिया। इस भरोसे के साथ कि मायावती इस परंपरा को आगे ले जाएंगी लेकिन मायावती भी परिवारवाद की भंवर में फंस ही गईं।
कांसीराम ने सरकारी नौकरी छोड़कर ख़ुद को सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष में झोंक दिया, तब जाकर बहुजन समाज पार्टी की कामयाबी की नींव पड़ी लेकिन आज वही बीएसपी बहुजन से ही दूर हो चुकी है। हालत ये है कि 2014 के चुनाव में बीएसपी उस यूपी में भी साफ हो गई जहां दलितों की संख्या करीब 19 फीसदी है और 2012 में यूपी की सत्ता से भी बाहर हो गई। यानि दलितों का अपनी ही स्वघोषित झंडाबरदार पार्टी से भरोसा डिग गया है । बीएसपी का मौजूदा नेतृत्व भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के घेरे में है, ऐसे में दलित समाज के बीच बीएसपी की पैठ लगातार कमजोर हुई है और अब लगता है कि पार्टी की आयडियोलॉजी भी अपना गियर बदल रही है।
देश के तमाम दूसरे राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों की तरह ही बीएसपी भी परिवार विशेष की पार्टी बनकर रह गई है। ऐसे मे पार्टी सियासी भविष्य पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं क्योंकि सामने तृणमूल कांग्रेस का उदाहरण मौजूद है, जहां भतीजे अभिषेक बनर्जी के हाथों में सियासी विरासत सौंपने के फेर में ममता बनर्जी ने अपनी बनी बनाई धाक को मुश्किल में डाल दिया। कहीं बीएसपी में इसकी पुनरावृति न हो जाए, खैर ये तो आगे जाकर ही पता चलेगा लेकिन इतना तो तय है कि आज कांसीराम को कुछ तो खटका ही होगा । दलितों की राजनीतिक चेतना के सबसे बड़े चेहरे के रूप में कांसीराम के बनाए नियम ऐसे बदल जाएंगे ये शायद ही उन्होने सोचा होगा। लेकिन जंग और प्यार की तरह अब सियासत में भी सब जाय़ज है ।
वासिन्द्र मिश्र
@vasindra_mishra