असम में आज जश्न का माहौल है। जश्न है बोडोलैंड को लेकर चल रहे आंदोलन के खात्मे का, जिसका साक्षी बनने खुद पीएम मोदी भी पहुंचे। लेकिन क्या सब कुछ उतना ही सकारात्मक है जितना कि तस्वीरों में नजर आ रहा है। क्योंकि भले ही आंदोलन के खात्मे से 28 फीसदी बोडो आबादी खुश हो रही हो, लेकिन इस समझौते से गैर बोडो जातियों में असंतोष के सुर तेज हो रहे हैं ।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब पीएम मोदी को CAA को लेकर भड़के आक्रोश के चलते एक नहीं दो दो बार अपन दौरे को रद्द करना पड़ा, लेकिन फिर बोडोलैंड को लेकर सरकार के फैसले ने पूरी तस्वीर ही बदल कर रख दी। कोकराझार में लोगों ने अपनी खुशी जाहिर करते हुए हजारों मिट्टी के दीए जलाए और ये सब हुआ 27 जनवरी के उस समझौते के बाद जिसमें सरकार ने नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (NDFB) के चार धड़ों, आल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन और एक नागरिक समाज समूह के साथ मिलकर बड़ा फैसला लिया। केन्द्र सरकार इस कदम को ऐतिहासिक कहते नहीं थक रही, जिसका मकसद असम के बोडो बहुल इलाकों में दीर्घकालिक शांति लाना है।
इस समझौते के साथ ही करीब 50 साल से चला रहा बोडोलैंड विवाद खत्म हो गया, जिसकी वजह से 1993 से 2014 के बीच लाखों लोग विस्थापित हुए और अब तक 2823 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। पिछले 27 साल में यह तीसरा ‘असम समझौता’ है, जिसके तहत कई उग्रवादी संगठन देश की मुख्याधारा में शामिल हो गए। अब उनके कैडर का पुनर्वास किया जाएगा। इसके तहत बोडो क्षेत्रों के विकास के लिए तीन सालों में 1500 करोड़ रुपये का विकास पैकेज मिलेगा।
पूर्वोत्तर में अलग बोडोलैंड की मांग को लेकर 60 के दशक में आंदोलन शुरू हुआ। ब्रह्मपुत्र नदी घाटी के उत्तरी हिस्से में बसी असम की सबसे बड़ी जनजाति है बोडो,जो खुद को असम का मूल निवासी मानते हैं। आंकड़ों के मुताबिक असम में बोडो जनजाति की आबादी लगभग 28 फीसदी है। बोडो जनजाति की सबसे बड़ी शिकायत ही ये रही है कि असम में इनकी जमीन पर दूसरी संस्कृतियों और अलग पहचान वाले समुदाय ने कब्जा जमा लिया। लिहाजा ये अपने ही घर में हाशिए पर चले गए, जिसके बाद राजनीतिक आंदोलनों के साथ-साथ हथियारबंद समूहों ने अलग बोडो राज्य बनाने के लिए कोशिशें तेज कर दीं ।
हालांकि बोडो समुदाय के साथ ये कोई पहला समझौता नहीं है। पहला बोडो समझौता 1993 में सरकार और ऑल बोडो स्टूडेंट यूनियन के साथ हुआ और बोडोलैंड ऑटोनॉमस काउंसिल का गठन हुआ, जो बोडोलैंड आंदोलन का एक अहम पड़ाव बना। 2003 में दूसरा समझौता सरकार और बोडो लिब्रेशन टाइगर्स के बीच हुआ, जिसके बाद बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल (BTC) का गठन हुआ, जिसमें असम के चार जिले कोकराझार, चिरांग, बस्का और उदलगुरी को शामिल किया गया। बाद में इस इलाके को बोडोलैंड टेरिटोरियल एरिया डिस्ट्रिक्ट कहा जाने लगा।
और फिर आया NRC का मुद्दा जिसने असम में उबाल ला दिया। NRC से उपजे असंतोष को शांत करने के लिए CAA लाया गया, लेकिन हालात और बेकाबू हो गए। अब बीते एक महीने के दौरान केन्द्र सरकार पूर्वोत्तर की समस्या से जुड़े तीन बड़े ऐतिहासिक समझौते कर चुकी है। इसमें त्रिपुरा में 80 सशस्त्र आतंकियों का समर्पण, मिजोरम-त्रिपुरा के बीच ब्रू रियांग शरणार्थियों को स्थायी निवास देना और अब बोडो शांति समझौता शामिल है ।
हालांकि असम में अशांति का दौर आजकल से नहीं है बल्कि राज्य गठन के पहले से ये सिलसिला चला आ रहा है, क्योंकि यहां बाहरी बनाम असमिया के मसले पर आंदोलनों का दौर काफी पुराना है। 50 के दशक में ही बाहरी लोगों का असम आना यहां राजनीतिक मुद्दा बनने लगा था। औपनिवेशिक काल में चायबगानों में काम करने के लिए बड़ी तादाद में बिहार और बंगाल से मजदूर असम पहुंचने लगे थे, जिन्हें अंग्रेजों ने खाली पड़ी जमीन बांटनी शुरु कर दी थी। लिहाजा बाहरियों को लेकर अंसतोष पनपना शुरु हो गया था।
धीरे धीरे वक्त बीतता रहा फिर साल 1983 में असम में हुए नीली दंगे ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। महज 24 घंटे के भीतर ही करीब 2000 लोगों की हत्या कर दी गई थी। कहा जाता है कि असम में बांग्लादेशी नागरिकों के खिलाफ ये सबसे बड़ी हिंसा मानी गई, जिसने केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार को भी झकझोर कर रख दिया, जिसके बाद राज्य़ में इलीगल इमीग्रेंट डिटरमिनेशन बाई ट्रिब्यूनल एक्ट (IMDTA) लागू किया गया। लेकिन नतीजे ये रहे कि ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (AASU) की अगुवाई में चल रहा आंदोलन और भड़क गया। आखिरकार तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार को 15 अगस्त, 1985 को AASU के साथ समझौता करना पड़ा। इसी समझौते को असम अकॉर्ड कहा गया। समझौते के बाद विधानसभा को भंग कर चुनाव कराए गए जिसमे असम गण परिषद को बहुमत मिला औऱ प्रफुल्ल कुमार महंत मुख्यमंत्री बनाए गए।
बात अगर इस समझौते की करें तो इसके मुताबिक साल 1951 से 1961 के बीच असम आए सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और वोट का अधिकार दिया जाएगा। 1961 से 1971 के बीच असम आने वालों को नागरिकता और अन्य अधिकार दिए जाएंगे, लेकिन उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं होगा। साथ ही विकास के लिए विशेष पैकेज पर भी सहमति बनी थी। दिलचस्प ये रहा कि असम समझौते से राज्य शांति बहाली तो हुई, लेकिन नई बनी राज्य सरकार खुद भी इसे लागू नहीं करा पाई।
लेकिन असम का तो जैसे गठन से ही संघर्षों भरा इतिहास रहा है। साल 1905 में जब अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन किया तो पूर्वी बंगाल और असम के तौर पर नया प्रांत बना। असम पूर्वी बंगाल से संबंद्ध रहा, लेकिन जब देश का बंटवारा हुआ तो ये डर पैदा हो गया कि कहीं पूर्वी बंगाल के साथ असम भी पाकिस्तान का हिस्सा न बन जाए, लिहाजा गोपीनाथ बारडोली की अगुवाई में असम में विद्रोह हो गया और असम अपनी रक्षा करने में कामयाब रहा। और इस तरह से साल 1950 में असम का राज्य बन गया। यानि गठन से पहले ही असम अस्तित्व की जंग लड़ता रहा है और कामयाब भी होता रहा है। उम्मीद इस बार भी है कि तमाम मौजूदा विषम परिस्थितियों से असम एक बार फिर विजेता की तरह ही उभरेगा और संवरेगा भी ।
– वासिन्द्र मिश्र