कोरोना की महामारी से देश और दुनिया बेहाल है, लेकिन इस बीच दबे पांव एक और गंभीर महामारी ने भी दबे पांव दस्तक दे दी है। डर है कि कहीं ये देश के कामगारों को फिर बंधुआ मज़दूरी के अंधे कुएं में न ढकेल दे। कोरोना के चलते पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के मकसद से तमाम राज्य सरकारों ने श्रम कानून में भारी भरकम छूट का जो प्लान तैयार किया ,है वो जैसे-जैसे उद्योगों के खजाने भरेगा, वैसे-वैसे देश का मज़दूर मज़बूर और मज़बूर होता चला जाएगा। आशंका है कि यहीं से हो सकता है देश में बंधुआ मजदूरी के खौफनाक युग का आगाज़।
उत्तर प्रदेश समेत देश के कई राज्यों गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और पंजाब ने फैक्ट्री अधिनियम में संशोधन के बिना काम की अवधि को आठ घंटे प्रतिदिन से बढ़ाकर 12 घंटे कर दिया। बिहार सरकार भी इसी राह पर है। तो क्या ये मान लिया जाए कि सरकारों को अपना खजाना भरने के लिए मजदूरों के शोषण से भी गुरेज नहीं ? यूपी में अध्यादेश के जरिए एक दो नहीं बल्कि 35 श्रम कानूनों को अगले तीन साल के लिए निलंबित कर दिया। महज़ नाम के लिए बंधुआ मजदूरी अधिनियम-1976 का पालन किया जाएगा। लेकिन चूंकि श्रम विभाग पूरे 1000 दिनों तक उद्योगों में इंस्पेक्शन नहीं कर सकता तो ऐसे कानून का होना या न होना कितना असरदार होगा ये तो राम ही जाने।
लॉकडाउन के मौजूदा हालात में जब कामगारों के हितों की सबसे ज्यादा रक्षा होनी चाहिए थी, तब सरकार उन्हें धन्ना सेठों के रहमों-करम पर जीने को मजबूर कर रही है। क्योंकि नए माहौल में तो मजदूरों के हक में न तो आवाज़ उठाई सकेगी और न आखिरी पायदान पर जा पहुंचे मज़दूरों को कोई कानूनी मदद ही मिल पाएगी। कंपनी जब चाहे रख ले जब चाहे बाहर कर दे। जाहिर है, इससे देश के करोड़ों मज़दूरों के लिए आगे कुआं पीछे खाई जैसे हालात पैदा हो गए हैं। तभी तो शक गहरा गया है कि श्रम कानूनों में छूट के फैसले से एक बार फिर बंधुआ मजदूरी का वो दौर न लौट आए जिससे निजात पाने में देश को दशकों लग गए। याद कीजिए इतिहास के पन्नों में मजदूरों की उस त्रासदी के काले दौर को, जहां एक जीता जागता मज़दूर गुलामी की बेड़ी में जकड़ा हुआ, एक बेजुबान जानवर से भी बदतर हालात में ज़िंदगी काटने को मजबूर था। न जाने कितने ही आंदोलनों और समाजसेवियों के दिन रात के संघर्षों का नतीजा था, जब 25 अक्टूबर,1976 को देश को इस शर्मिंदगी भरी प्रथा से मुक्ति मिली ।
एक वक्त में इस अमानवीय प्रथा का इस्तेमाल शोषक साहूकारों, जमींदारों द्वारा किया जाता था लेकिन दौर बदला और आज जनता की चुनी सरकारें उस भूमिका में नज़र आ रही हैं। फिर कहां जाएगा वो निर्बल,निशक्त और मजबूर कामगार ? ऐसे में सवाल ये भी है कि क्या उद्योगों की मदद के लिए मज़दूरों के हक पर डाका डालना ही एकमात्र विकल्प है ? क्यों नहीं सरकारें दूसरे विकल्पों में राह तलाशतीं जिससे मजदूरों और उद्योगों दोनों के हित बचे रहते। मसलन सरकार बंदी के दौरान के बिजली बिल में छूट, अगले एक साल तक जीएसटी में छूट, बैंक इंटरेस्ट की सब्सिडी जैसे कदम उठा सकती थी, बजाय
गरीबों का शोषण करने का अधिकार देने के।
इस फैसले के खिलाफ न केवल मजदूर संगठन लामबंद हैं बल्कि सियासत ने भी अपनी राह तलाश ली है। तमाम पार्टियों ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को चिट्ठी लिखकर अपना विरोध दर्ज कराया, लेकिन मजदूर की पीड़ा पर तो सरकारी मुहर लग ही गई न अब ! साफ है कोरोना वायरस की आड़ में सरकारें जान-बूझकर श्रम कानूनों को कमजोर कर रही है, जो आने वाले दिनों में मज़दूरों के त्रासदी भरे दिनों के रूप में देखने को मिल सकता है। ऐसी स्थिति तक उन्हें लाना न केवल संविधान का उल्लंघन है, बल्कि संविधान को निष्प्रभावी बनाने के बराबर संगीन है। क्योंकि इस बात में कोई दो राय नहीं कि ये बदलाव आगे चलकर श्रमिकों की जिंदगी को खतरे में डाल सकते हैं, जो पहले से ही अमानवीय हालत में हैं। और अगर अगर भी इन्हें धन्नासेठों पर कुर्बान होने के लिए मजबूर करेगी तो फिर कौन करेगा मजदूरों के हितों की रक्षा ?
– वासिन्द्र मिश्र