“मैं आपको बता सकता हूं कि मैंने पीएम मोदी से बात की थी, चीन के साथ जो भी चल रहा है,उस पर उनका मूड अच्छा नहीं है।” अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का ये बयान बताने के लिए काफी है कि किस तरह से अमेरिका भारत के तमाम द्विपक्षीय मुद्दों में जबरन घुसने की कोशिश कर रहा है। भले ही वो खुद को मददगार या शांतिदूत के तौर पर दिखाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन सच्चाई इससे कहीं अलग है। सबसे दिलचस्प तो रहा कि अगर सूत्रों की मानें तो पीएम मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति के बीच फिलहाल कोई संपर्क हुआ ही नहीं। आखिरी बात अप्रैल 2020 में HCQ टैबलेट को लेकर हुई थी। अब सच्चाई तो दोनों नेता ही जानते होंगे।
आपको बता दें कि बीते दिनों एक नहीं दो बार भारत और चीन के बीच लद्दाख व सिक्किम के वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव बढ़ने की खबरें आ चुकी हैं, जिसे देखते हुए वास्तविक नियंत्रण रेखा पर दोनों देशों ने सैनिकों की तैनाती और पेट्रोलिंग बढ़ा दी है। भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) कही जाने वाली 3,488 किलोमीटर लंबी सीमा पर विवाद है। पूर्वी लद्दाख में 5 मई की शाम को भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच हुई हिंसक झड़प के बाद स्थिति खराब हो गई। इस हिंसा में कई भारतीय और चीनी सैनिक घायल हो गए थे। इसके 4 दिन बाद ही उत्तरी सिक्किम में भी 9 मई को इसी तरह की घटना घटी थी।
हालांकि ये पहली बार हुआ है कि भारत-चीन सीमा विवाद पर अमेरिका या किसी दूसरे देश ने टिप्पणी की है। हालांकि ट्रंप जरूर पहले भी तमाम देशों के ऐसे मामलों में दखल देते रहे है। वो इससे पहले भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर मुद्दे पर कई बार मध्यस्थता का भी प्रस्ताव दे चुके हैं, लेकिन विदेश मंत्रालय ने हर बार ये कहते हुए प्रस्ताव खारिज कर दिया कि कश्मीर मुद्दे पर द्विपक्षीय स्तर पर ही विचार हो सकता है। फिर भी ट्रंप हैं कि मानते नही। लेकिन हर बार ट्रंप को जवाब ना के ही रूप में मिला है।
दरअसल अमेरिका खुद को स्वघोषित बिग ब्रदर मानता आया है औऱ वो अपनी सोच दूसरों पर लादता रहा है। ट्रंप कोई पहले अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष नहीं हैं जो दूसरे देशों खासकर भारत के द्विपक्षीय मामलों में दखल दे रहे हैं। याद कीजिए वाजपेयी सरकार के दौर में भी जब करगिल युद्ध हुआ था। भारतीय सेना के सैकड़ों सैनिकों ने शहादत दी और पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब दिया, लेकिन जब भारत अपनी जीत के करीब पहुंचा तो तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने विश्वशांति की दुहाई देकर युद्ध खत्म करने की वकालत की और भारत-पाकिस्तान के बीच शांति समझौता हो गया। लेकिन उन सैनिकों की शहादत का क्या ? देश की संप्रभुता का क्या ?
सवाल तो हमारी विदेश नीति पर भी हैं कि आखिर क्यों किसी तीसरे के आगे हम सरेंडर की भूमिका में आ जाते हैं ? भले ही कश्मीर मुद्दे पर भारत कड़ा रुख दिखाता रहा है, लेकिन हाल में विदेशी डेलिगेशन के कई प्रायोजित दौरे उस कड़े स्टैंड को पलीता लगा देते हैं। हमारे देश की कूटनीति कैसे इस हाल में पहुंच गई ? इस पर गहनता से विचार की जरूरत है। क्योंकि एक वक्त था जब देश की कूटनीतिक ताकत का लोहा पूरी दुनिया मानती थी। पूर्व पीएम इंदिरा गांधी के दौर में 1971 के युद्ध के दौरान इंदिरा ने अमेरिकी दबाव में आने से इनकार कर दिया था औऱ तत्कालीन अमेरिकी प्रेसिडेंट निक्सन को खुली चुनौती दी थी और कहा था कि कोई भी भारत को आदेश देने का दुस्साहस न करे।
ऐसे इतिहास के साथ आगे बढ़ने वाले भारत में धीरे धीरे वो दौर क्यों आया कि कोई भी उठकर आ जाए और हमारे मसलों में जबरन घुसने की कोशिश करे। ये समय मंथन का है ताकि राजनयिक, कूटनीतिक मोर्चे पर भारत का वही दबदबा कायम हो सके, जिसकी धमक आजादी के बाद ही दिखने लगी थी।
– वासिन्द्र मिश्र