कभी भारत के नैचुरल साथी रहे नेपाल के तेवरों में भारत के लिए ऐसी तल्खी पहले तो कभी न दिखी। सीमा विवाद पर ऐसी तल्ख टिप्पणी और फिर कोरोना संक्रमण को लेकर बेसिरपैर का बयान। भारत सरकार की तारीफों के पुल बांधने वाले नेपाल के प्रधानमंत्री केपी ओली ने कुछ ऐसा कह दिया कि भारत भी आगबबूला हो गया। ओली ने ऐलान कर दिया कि कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा नेपाल का हिस्सा हैं और उन्हें हर हाल में वापस लाकर रहेंगे तो कई सवाल खड़े हो गए।
माना जा रहा है कि भारत इस मामले में सख्ती बरतने का मन बना चुका है। आप सोचिए कि आखिर भारत के चीफ़ ऑफ आर्मी स्टाफ को विदेश नीति के मुद्दे पर क्यों बोलना चाहिए ? सेनाध्यक्ष का बोलना क्या ये इशारा नहीं कर रहा कि भारत भी अपरोक्ष रूप से नेपाल को धमकी दे रहा है। हालांकि पूरे मामले में सबसे बड़ा सवाल भारत की नाकाम कूटनीति से जुड़ा हुआ है, जो अपने आस पास के तमाम छोटे पड़ोसी देशों का भरोसा जीतने में नाकामयाब साबित हो रही है। वैसे सवाल तो कम विदेश नीति पर भी नहीं है, क्योंकि उसकी प्राथमिकता में पहले से मजबूत रिश्ते वाले देश कहीं नज़र नहीं आते हैं।
जाहिर है लिपुलेख और कालापानी का मामला जल्द शांत होने वाला नहीं, क्योंकि नेपाल काफी समय से चीन की आड़ में भारत पर दबाव बनाने की कोशिश करता रहा है। नेपाल की कम्युनिस्ट सरकार लगातार चीन के संपर्क में रही है। इस मामले में भी चीन की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि कभी रोटी-बेटी के नाते वाला नेपाल अब भारत की झोली से छिटक कर चीन की गोद में जा पहुंचा है। पहले व्यापारिक संबंधों में खटास दिखी और अब ताजा मामला ‘कालापानी’ विवाद से जुड़ा हुआ है।
ये पहली बार नहीं है जब नेपाल ने ऐसे आंखें तरेरी है और इसके पीछे भी नेपाल को चीन से मिलने वाला आर्थिक सहयोग एक वजह है। कुल मिलाकर चीन इस क्षेत्र मे अपना दबदबा बढ़ाते हुए भारत के पड़ोसी देशों के साथ लगातार अपनी नजदीकियां बढा रहा है और एक बड़ी आर्थिक शक्ति के नाते वहां इन देशों की आर्थिक प्रगति मे सहयोग दे कर अपना वर्चस्व बढ़ा रहा है। दिलचस्प ये है कि आज आस पास के कमोबेस सारे पड़ोसी देशों के साथ संबंध हिचकोले खाते ही नज़र आ रहे हैं।
साल 2018 में शशि थरूर की अध्यक्षता वाली विदेश मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में भारत के पड़ोसी मुल्कों श्रीलंका, मालदीव, नेपाल में चीन की बढ़ती पैठ पर चिंता जताई थी, यानि मौजूदा हालात केन्द्र सरकार की नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी (Neighbourhood first) यानि आस-पास के पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते पर भी सवाल खड़े कर रहे हैं, क्योंकि तमाम दावों के बावजूद पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, अफगानिस्तान, भूटान, मालद्वीव के साथ- साथ चीन के साथ भारत के रिश्तों मे लगातार दूरियां बढ़ती नजर आ रही है, जिसका सीधा असर देश की सामरिक, आर्थिक ताकत और भौगोलिक सीमा पर साफ देखा जा सकता है।
पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्तों की तनातनी जगजाहिर है। सीमा पर तनाव बढ़ता ही जा रहा है, जिसका असर दोनों देशों के नागरिकों के साथ साथ अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है,जिसका फायदा पड़ोसी देश चीन ने अच्छी तरह से उठाया। पाकिस्तान को कर्ज में डुबो कर चीन ने भारत-पाकिस्तान के बीच की खाई को और भी चौड़ा कर दिया।
वहीं पड़ोसी देश म्यांमार और बांग्लादेश के साथ रोहिंग्या मुद्दे को भारत के साथ असहमति का दौर भी संबंधों की गरमाहट को कम कर गया, क्योंकि बांग्लादेश लगातार ये आरोप लगाता रहा है कि भारत ने इस मुद्दे पर खुलकर कभी भी उसका साथ नहीं दिया या यूं कहें उस का आरोप था कि भारत म्यांमार का साथ दे रहा है।
आखिर क्यों ड्रैगन यानि चीन भारतीय उपमहाद्वीप में अपना दबदबा बनाने के लिए भारत को निशाना बना रहा है, तो उसके पीछे की बड़ी वजह सीमा विवाद भी है। हाल ही में नाकुला पास पर भारतीय और चीन सेना के बीच हुई तनाबतनी ने खूब सुर्खियां बटोरीं। सीमा पर शांति बनाये रखने के लिये दोनों देशो की सेनाओं के बीच कई बार सामरिक दिशा निर्देश भी तय हुये, लेकिन NSG में भारत की सदस्यता को लेकर चीन की अडंगेबाजी और BRI परियोजना जैसे मुद्दों पर चीन के लगातार भारत विरोधी तेवर बने हुए हैं।
उधर मालदीव में भी चीन के बढ़ते प्रभाव के चलते भारत के साथ रिश्तों दरार लगातार बढ़ती जा रही है। हालत ये है कि पिछले साल ही मालदीव ने भारत की तरफ से दिए गए दो नेवी हेलिकॉप्टर्स को वापस लौटा दिया। वहीं जून, 2018 में हालात तब और खराब हुए जब मालदीव में सत्ताधारी पार्टी के सांसद अहमद निहान को चेन्नई के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से वापस भेज दिया गया। वो इलाज के लिए आए थे। मालदीव की तरफ से कहा गया कि अगर भारत का पड़ोसी देशों के प्रति यह नीतिगत रवैया है तो इससे कुछ भी हासिल नहीं होने जा रहा। हालांकि इसकी बड़ी वजह चीनी कर्ज भी है। कुल कर्ज का 70 फीसदी कर्ज चीन ने ही मालदीव को दिया है।
कुछ ऐसा ही हाल असर भारत श्रीलंका के संबंधों का भी है। श्रीलंका के मौजूदा राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के बड़े भाई और पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने एक वक्त चीन से अरबों डॉलर का उधार भी लिया था और कोलंबो बंदरगाह के दरवाजे चीन के युद्धपोतों के लिए खोल दिए थे। आज भी श्रीलंका चीन के भारी भरकम कर्ज के बोझ तले दबा हुआ है। लिहाजा चीन के लिए श्रीलंका का रुख भारत के मुकाबले कहीं ज्यादा झुकावदार है। वहीं हाल के दिनों में भारत- श्रीलंका के संबंध भी खासे उतार-चढ़ाव वाले रहे हैं।
यानि कुल मिलाकर जिस भारतीय उपमहाद्वीप पर कभी भारत की तूती बोलती थी, वहां अब सबकुछ बदल गया है। 6 साल पहले पीएम मोदी ने दक्षेस देशों के राष्ट्राध्यक्षों को सरकार के शपथ-ग्रहण समारोह मे बुला कर ‘नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी’ की शुरूआत की थी, लेकिन ये भी बड़ा सच है कि वो पॉलिसी वक्त की कसौटी पर खरी नहीं उतर पाई। लिहाजा ये वक्त है सरकार के लिए भी एक समीक्षा का है कि वो कैसे पड़ोसियों के साथ संबंधों को पटरी पर ला सके और फिर से भारतीय उपमहाद्वीप में अच्छे संबंधों की वो गरमाहट महसूस की जा सके, जो एक वक्त सभी पड़ोसियों का चहेता देश बनाए थी ।
– वासिन्द्र मिश्र