आजाद भारत के पहले और सबसे ज्यादा वक्त तक प्रधानमंत्री रहे पंडित जवाहरलाल नेहरू की 56वीं पुण्यतिथि पर देश उन्हें याद कर रहा है, लेकिन नेहरू की प्रासंगिकता बस इतने भर की ही नहीं है। इसे समझने के लिए पहले एक नज़र राहुल गांधी के ट्वीट पर – “पंडित जवाहर लाल नेहरू जी एक बहादुर स्वंतत्रता सेनानी, आधुनिक भारत के निर्माता और हमारे पहले प्रधानमंत्री थे. उन्होंने देश को ऐसे बड़े संस्थान दिए जो वक्त पर हमारे काम आ सके। उनकी पुण्यतिथि पर मैं देश के महान बेटे को नमन करता हूं।”
दरअसल आज दुनिया जब कोरोना वायरस जैसी घातक महामारी से लड़ रही है,तब नेहरू की नीतियों की उपयोगिता साफ दिखाई देती है, क्योंकि दशकों पुरानी नेहरू की वैज्ञानिक सोच ही आज कोरोना संकट में काम आ रही है ना कि गोबर-गोमूत्र की अंधआस्था। कोरोना महामारी के चलते तेजी से फैली आर्थिक महामारी के घेरे में नेहरू मॉडल ऑफ गवर्नेंस की प्रासंगिकता हज़ार गुना बढ़ जाती है। अब जबकि दुनिया की तमाम अर्थव्यवस्थाएं और सोशल वेलफेयर स्कीम्स लगभग धड़ाम हो चुकी हैं, तब भी भारत जैसे देश में मॉडल ऑफ इकॉमनी एंड गवर्नेंस इन महामारियों से लड़ने में कारगर दिख रहा है।
बातें चाहे जो भी कही गई हो, कभी ग्लोबल इकॉनमी की आड़ में तो कभी नई अर्थव्यवस्था या फिर उदारवादी अर्थव्यवस्था के नाम पर। भले ही नेहरू के बनाए हुए आर्थिक-औद्योगिक ढांचे को नष्ट करने की कोशिश की गईं हो, लेकिन आज संकट की इस विकट घड़ी में वही तमाम सरकारी संस्थाएं और सरकारी विभाग, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, ट्रस्ट पीड़ित-बदहाल मानवता के लिए मददगार साबित हो रहे हैं जो नेहरू काल की बड़ी उपलब्धियों में शुमार हैं।
दुनियाभर में कोरोना के 22 लाख से ज्यादा मामले सामने आए वहीं दो लाख से ज्यादा लोग इस महामारी के चलते काल के गाल में समा चुके हैं। भारत में जो संस्थान अभी कोरोना वायरस से लड़ाई में मुख्य भूमिका निभा रहे हैं, चाहे वह ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज हो या फिर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी हो, इनकी स्थापना ही नेहरू के विजन के चलते हुई। लिहाजा मौजूदा हालात को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि भारत जैसे प्राचीन सांस्कृतिक देश के लिए पंडित नेहरू का सोशलिस्ट वेलफेयर इकॉनमी का मॉडल ही सबसे उपयुक्त है और समीचीन भी है।
जब नेहरू पीएम बने तो भारत कई घातक महामारियों से जूझ रहा था। उनके नेतृत्व में बनी आजाद भारत की पहली सरकार ने सबसे पहले हेल्थ केयर सिस्टम को मजबूत किया फिर वैक्सीन प्रोग्राम चलाया। पंडित नेहरू के कार्यकाल में शुरु हुईं पंचवर्षीय योजनाओं में महामारियों से निपटने का प्लान पहले ही तैयार होता था। महामारी के दौर में भारत समेत दुनिया के कई देश पंडित जवाहरलाल नेहरू से विजन से सीख सकते हैं कि कैसे विज्ञान को आधारशिला बनाकर एक मजबूत हेल्थ केयर सिस्टम तैयार किया जा सकता है। विकास की अंधी दौड़ में शामिल दुनिया के तमाम विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाएं जहां एक तरफ बुरी तरह से ध्वस्त होती दिख रही है, वहीं भारत और भारतीय समाज अपने पुराने परंपरागत, लोककल्याणकारी जीवन मूल्यों के दम पर इस महामारी से स्वत: लड़ रहा है।
पंडित नेहरू के वक्त दुनिया में विकास के दो ही मॉडल मौजूद थे। एक में पूंजीवादी व्यवस्था की तरफ झुकाव था तो वहीं दूसरा मॉडल था सोवियत यूनियन मॉडल, जिसमें सोशलिज़्म, वेलफेयर स्कीम्स के जरिए देश के विकास का कॉन्सेप्ट। नेहरू ने विकास के दूसरे मॉडल को चुना, क्योंकि नेहरू खुद बहुत बड़े दार्शनिक थे। उनके मुताबिक भारत जैसे देश में वेलफेयर मॉडल ही ज्यादा कारगर साबित होगा। उन्होने देश में बड़े कारखाने लगाए, अस्पताल बनवाए, IIT-IIM खुलवाए, तमाम रिसर्च इंस्टीट्यूट खुलवाए। क्योंकि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने देश के सर्वांगीण विकास का सपना देखा था और काफी हद तक उन्होने इसे पूरा भी किया। पंडित नेहरू ने देश की कमान तब संभाली, जब देश भुखमरी, गरीबी और अशिक्षा जैसी महामारी की स्थिति से गुजर रहा था। आजादी के बाद देश को विकास के रास्ते पर लाने के लिए उन्होंने योजना आयोग बनाया। ये उनकी नीतियों का ही नतीजा था कि कृषि और उद्योग के एक नये युग का आगाज़ हुआ। यूं ही नहीं भारतरत्न पंडित नेहरू को आधुनिक भारत का रचयिता कहा जाता है।
जवाहरलाल नेहरू ने जिस “आइडिया ऑफ इंडिया” की कल्पना की थी, उसके मुताबिक भारत को न केवल आर्थिक और सियासी लिहाज से स्वावलम्बी बनाना था बल्कि ग़ैर साम्प्रदायिकवाद पर भी चलाना था। ये नेहरू ही थे जिन्होंने समाजवाद के प्रति असीम प्रतिबद्धता दिखाई और धर्म निरपेक्षता के साथ-साथ सामाजिक न्याय को संवैधानिक जामा पहनाया। खासकर आर्थिक स्वावलम्बन की दिशा में कल-कारखानों की स्थापना, बांधों का निर्माण, बिजलीघर रिसर्च सेन्टर, विश्वविद्यालय तथा उच्च तकनीकी संस्थानों की उपयोगिता पर उनका खासा ज़ोर रहा। इतिहासकार और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ मोहम्मद आरिफ कहते हैं कि हालात ने हमें नेहरू पर फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया है कि यदि उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं का अस्तित्व न होता तो इस संकट की घड़ी में क्या होता।
यही वजह है कि जब इतना दूरदर्शी नेता साल 1964 में अपनी अनंत यात्रा पर निकला तो अथाह जनसमुद्र सड़कों पर नज़र आया। नेहरू के निधन पर विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी अपने दर्द को छिपा नहीं पाए संसद में नेहरू को श्रद्धांजलि देते हुए वाजपेयी ने कहा था कि चिराग बुझ गया, आज एक सपना खत्म हो गया है, एक गीत खामोश हो गया है, एक लौ हमेशा के लिए बुझ गई है। ये एक ऐसा सपना था, जिसमें भुखमरी, भय डर नहीं था, यह ऐसा गीत था जिसमे गीता की गूंज थी तो गुलाब की महक थी।
आज जब हम कोविड-19 जैसे विकट हालात से जूझ रहे हैं तो पंडित नेहरू की वैज्ञानिक सोच एक बार फिर चर्चा में है। सन 47 में आजादी के वक्त भारत न तो महाशक्ति था और न ही आर्थिक रूप से सक्षम और आत्मनिर्भर। बंटवारे के वक्त एक बड़ी आबादी ने अपने ठिकाने बदले थे, लेकिन जिस तरह सड़कों पर आज लोग मारे—मारे फिर रहे हैं और उनका कोई पुरसाहाल लेने वाला नहीं, ऐसा नेहरू ने अपने कार्यकाल में होने नहीं दिया और अब बार फिर हम मुश्किल दौर में हैं तो जरुरत है कि हम एकजुटता, अनुशासन और आत्मविश्वास के साथ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को बचाने में जुट जाएं और पूरा भरोसा है कि नेहरू का दर्शन जरूर इस मिशन में देश को दिशा दिखाएगा।
यह चिराग की ऐसी लौ थी जो पूरी रात जलती थी, हर अंधेरे का इसने सामना किया, इसने हमें रास्ता
दिखाया और एक सुबह निर्वाण की प्राप्ति कर ली।
– वासिन्द्र मिश्र