लोकसभा चुनाव में हार के बाद भी कांग्रेस पार्टी की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रहीं और इसकी वजह कहीं ना कहीं खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ही हैं, जो पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ने की जिद पर अड़े हैं। राहुल बार बार इस्तीफे की बात कह रहे हैं और पार्टी के सांसद, नेताओं से लेकर कार्यकर्ता तक उन्हें मनाने में लगे हैं। लेकिन राहुल पार्टी को फिर से सिरे से मजबूत कर मैदान में उतरने के बजाए अध्यक्ष पद छोड़ने पर क्यों अड़े हैं। इसका सीधा सा जवाब है, राहुल गांधी पलायनवाद के शिकार हैं। वो पावर तो चाहते हैं, लेकिन पावर के साथ जो जिम्मेदारी आती है वो नहीं लेना चाहते। जीत का सेहरा सब अपने सिर बांधना चाहते हैं, लेकिन हार का ठीकरा हमेशा पार्टी पर डाल दिया जाता है। यही हो रहा है कांग्रेस पार्टी में। जिन राहुल गांधी को हार की जिम्मेदारी लेते हुए आगे के चुनावों के लिए संगठन को मजबूत कर मैदान में उतरने की तैयारियों में जुट जाना चाहिए, वो इस्तीफे की जिद पर अड़े हैं। और पूरी कांग्रेस पार्टी उन्हें मनाने में जुटी है।
गांधी परिवार की पुरानी रणनीति
दरअसल, राहुल की ज़िद के कारण को समझा जाए तो इसके पीछे गांधी परिवार की पुरानी रणनीति ही है। राहुल पार्टी में एक डमी अध्यक्ष चाहते हैं, जिसे वो पर्दे के पीछे से कंट्रोल कर सकें। ठीक उसी तरह जिस तरह से गांधी परिवार नें UPA-1 और UPA-2 के दौरान मनमोहन सरकार को कंट्रोल कर रखा था। गांधी परिवार ने मनमोहन सिंह को पीएम बनाकर पीछे से सरकार चलाते रहे और अब राहुल ठीक उसी तरह पार्टी भी चलाना चाहते हैं। सफलता मिले तो खुद की तारीफ और नाकामी मिले तो दूसरों पर थोप दिया जाए। क्योंकि UPA-1 और UPA-2 के दौरान कई बार कांग्रेस के सीनियर लीडर्स और खुद मनमोहन सिंह की तरफ से राहुल को सरकार में शामिल करने की पेशकश की गई थी लेकिन तब राहुल ने संगठन में काम करने की इच्छा जताते हुए इस पेशकश को ठुकरा दिया था। लेकिन पर्दे के पीछे से सरकार के फैसले गांधी परिवार ही लेता रहा। UPA-1 और UPA-2 के दौरान ज्यादातर फैसले राहुल और सोनिया से पूछकर लिए गए।
एडवायजरी काउंसिल का गठन इसका उदाहरण
सोनिया की अध्यक्षता में नेशनल एडवायजरी काउंसिल का गठन इसका सीधा उदाहरण है, लेकिन तब राहुल गांधी को सामूहिक जवाबदेही याद नहीं आई जब उन्होंने अपनी ही सरकार के विधेयक को सबके सामने फाड़ दिया था। दरअसल राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोड़ने की जिद के पीछे की वजह यही है कि वे सीताराम केसरी की तरह कोई डमी अध्यक्ष बनाना चाहते हैं, जिसके ऊपर नाकामी का ठीकरा फोड़ा जा सके और जिस तरह सोनिया गांधी ने सीताराम केसरी को अपमानजनक तरीके से हटाकर पार्टी अध्यक्ष बनी थीं उसी तरह भविष्य में राहुल गांधी एक बार फिर पार्टी के अध्यक्ष बनने की सोच रहे हैं। ये गांधी परिवार का आजमाया हुआ फॉर्मूला है।
इंदिरा गांधी की का राह पर राहुल
कांग्रेस के इतिहास पर अगर नजर डालें, तो श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी इसी तरह संगठन पर कब्जा किया था और संगठन के अंदर चुनौती देने वाले नेताओं को कामराज प्लान के तहत बाहर का रास्ता दिखाया था। ऐसा लगता है कि राहुल गांधी श्रीमती इंदिरा गांधी के नक्शे कदम पर चलकर पार्टी के अंदर क्लीनजिंग ऑपरेशन को अंजाम देना चाहते हैं। इसलिए बार बार नैतिकता की दुहाई देकर अध्यक्ष पद छोड़ने की जिद पर अड़े हैं। लेकिन पार्टी को इस मुकाम तक लाने के लिए भी काफी हद तक राहुल ही जिम्मेदार हैं। क्योंकि उन्होंने पार्टी में जन नेताओं को बढ़ावा ना देकर अपने खास लोगों को हमेशा तवज्जो दी। पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की लोकप्रियता किसी से छिपी नहीं है, लेकिन बाजवा और सिद्धू राहुल के संरक्षण में ही लगातार कैप्टन को खुलेआम चुनौती देते आ रहे हैं। इसी तरह हरियाणा में भूपिंदर सिंह हुड्डा जैसे mass leader को आगे ना करके राहुल कुमारी शैलजा और रणदीप सुरजेवाला को प्रमोट करते आए हैं। बंगाल में अधीर रंजन चौधरी की अनदेखी की गई और ममता से हर संभव गठबंधन की कोशिश की गई।
नुकसान के बाद राहुल को इस्तीफा की याद आई
इसी तरह यूपी, बिहार में भी पार्टी के प्रदेश ईकाई की अनसुनी कर यादव नेताओं से तालमेल बिठाने में लगे रहे। इसी तरह आंध्र प्रदेश में भी राहुल गांधी ने YSR जगनमोहन रेड्डी को दिग्विजय सिंह के कहने पर साइडलाइन कर दिया। तो देशभर में पार्टी का इतना नुकसान होने के बाद अब राहुल को इस्तीफे की याद आ रही है। वास्तव में ये राहुल गांधी का चुनौतियों से मुकाबला करने में विफल रहने पर पलायनवादी सोच का नतीजा है। कांग्रेस की राजनीति को समझने वालों को ये बात अच्छी तरह से पता है कि कांग्रेस पार्टी की लाइफलाइन गांधी परिवार है। और कांग्रेस पार्टी की लाइबिलिटी भी गांधी परिवार ही है।
– वासिन्द्र मिश्र