दक्षिण एशियाई देश श्रीलंका में सियासत नई करवट ले रही है। लंबे वक्त के बाद पूरे दमखम के साथ श्रीलंका में राजपक्षे भाइयों की वापसी हुई और ऐसी हुई कि तमाम विपक्षी चारों खाने चित हैं। विपक्षी नेता सजित प्रेमदासा जो पूर्व राष्ट्रपति रणसिंघे प्रेमदासा के बेटे हैं, ने नतीजों के बाद चुनावी हार मान ली। वहीं प्रधानमंत्री रानिल विक्रम सिंघे ने भी पद छोड़ दिया है, जिसके बाद राजपक्षे भाइयों के सत्तासीन होने का रास्ता पूरी तरह से साफ हो गया। हाल ही में हुए राष्ट्रपति चुनाव में छोटे भाई गोटाबाया राजपक्षे ने जीत हासिल की और राष्ट्रपति बने। फिर उन्होने अपने बड़े भाई महिन्दा राजपक्षे को प्रधानमंत्री पद के लिए नामित कर दिया। खबरें तो ये भी हैं गोटाबाया अपने दूसरे भाई को भी बड़े संवैधानिक पद पर बैठाने की तैयारी में है।
राजपक्षे भाइयों का श्रीलंका की सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के साथ एक बार फिर इस बात पर मुहर लगती दिख रही है कि परिवारवाद के मामले में श्रीलंका भारत से कहीं आगे है। इससे पहले साल 1994 में श्रीलंका फ्रीडम पार्टी के शासन काल के दौरान मां-बेटी की जोड़ी ने श्रीलंका पर राज किय़ा था। जब बेटी चंद्रिका कुमार तुंगा नेराष्ट्रपति बनने के बाद अपनी मांसिरिमाओ भंडार नायके को प्रधानमंत्री नामित किया था और परिवारवाद की कुछ ऐसी ही तस्वीर एक बार फिर श्रीलंका में नज़र आ रही है। हालांकि ये सिलसिला तो श्रीलंका की आजादी के साथ ही शुरु हो गया था, जब सिरिमाओ भंडारनाय के पति एस डब्ल्यू भंडारनाएके श्रीलंका के राष्ट्रपति बने लेकिन उनकी हत्या के बाद गद्दी सिरिमाओ को सौंप दी गई।
हालांकि राजपक्षे परिवार की सियासत का एक दूसरा और अहम पहलू भी है, वो है श्रीलंका से लिबरेशन टाईगर्स ऑफ तमिल ईलम यानि लिट्टे (LTTE)के सफाए में दोनों भाईयों की अहम भूमिका। एक दशक पहले श्रीलंका में सक्रिय आतंकी संगठन लिट्टे के सफाए में दोनों भाइयों महिंदा और गोटाबाया ने बड़ी भूमिका निभाई थी। महिंदा जब 2005 में पहली बार श्रीलंका के राष्ट्रपति बने थे, तब उन्होंने गोटाबाया को श्रीलंका के रक्षा मंत्रालय में स्थायी सचिव नियुक्त किया था। गोटाबाया के ही नेतृत्व में लिट्टे के खिलाफ सैन्य अभियान चलाया गया था। लिट्टे जड़ से साफ हो गया, लिहाजा देश की नज़र में राजपक्षे भाइयों की खासी पैठ बन गई। ये और बात है कि इस ऑपरेशन के साथ ही महिन्दा राजपक्षे मानवाधिकार हनन के गंभीर आरोपों से भी घिरे रहे। लिहाजा इस बार भी लोग इनपी वापसी को लेकर थोड़े आशंकित तो है, लेकिन ये भी बड़ा सच है कि अपने बेबाक सपाट व्यवहार के चलते महिंदा राजपक्षे सिंहली जनता के बीच तब भी बेहद लोकप्रिय थे और आज भी उतने ही मक़बूल।
सिंहली लोग श्रीलंका की आबादी का चौथाई हिस्सा है और लोग तो उनके लिए कविताएं और गीत लिखा करते थे, जिनमें उन्हें राजा कहकर संबोधित किया जाता था। एलटीटीई चरमपंथियों के ख़िलाफ़ जंग में मिली जीत ने महिंदा राजपक्षे की लोकप्रियता को अपने चरम पर पहुंचा दिया था, जनता ने महिन्दा और गोटाबाया की उस वक्त की निर्णय क्षमता को ध्यान में रखते हुए इस बार फिर उन्हें मौका देने का मन बनाया।
क्योंकि देश कोई भी हो, आज की जनता की पसंद ऐसे लोग और सरकारें रही हैं जो पहले तो फैसले लेने में सक्षम हों और फिर उसे मजबूती से लागू करने की भी कुव्वत रखती हों। उदाहरण के तौर पर भारत की मौजूदा सरकार को भी गिन सकते हैं। वैसे मौजूदा वक्त में अमेरिका, रूस, इज़रायल, मैक्सिको , ब्राजील में ऐसा ही माहौल दिखता है, जहां की सरकारें अपने मजबूत स्टैंड और निर्णायक फैसलों के लिए जानी जाती है।
दरअसल दुनिया धीरे धीरे ही सही, सियासत के नए दौर में कदम रख चुकी है, जहां चलता है New World Order यानि नई विश्व व्यवस्था, जिसके मुताबिक जो सरकार फैसला सुनाए-वही जनता के मन भाए। हर जगह यही दौर चल निकला है और दिलचस्प य़े है कि सियासत की ये रवायत कामयाब भी साबित हो रही है और शायद यही वक्त की जरुरत भी है कि सरकारें या प्रतिनिधित्व निर्णायक हो, ताकि फैसलों को मुहर का इंतज़ार न करना पड़े। फिर क्या, जब मौका भी है और यही दस्तूर भी चल निकला है तो इसे निभाना तो पड़ेगा ही ।
वासिन्द्र मिश्र