“लाज़िम है हम भी देखेंगे”….. आखिर हम कब देखेंगे ?
बीते दिनों देश भर में विरोध प्रदर्शनों का जो दौर चला उसकी शायद ही कोई दूसरी मिसाल मिले और उस विरोध की आवाज बनी वो नज़्म जो दशकों पहले लिखी गई और आज की आवाज बन गई बात हो रही है पाकिस्तान के मशहूर शायर फैज अहमद ‘फैज’ की नज्म ‘हम देखेंगे…’ की। कैसे सरहद की सीमाओं को पार कर आज हर विरोध की धुन है ये नज्म और शायद उतनी ही विवादों से घिरी भी। जब जामिया के प्रदर्शन के दौरान गुनगुनाई गई तो फिर धीरे धीरे वो हर प्रदर्शन की आवाज बनी और जा पहुंची IIT कानपुर के कैंपस तक। 17 दिसंबर को हुआ छात्रों का विरोध प्रबंधन को नागवार गुजरा और जांच बिठा दी गई। खबर आई कि कानपुर IIT की जांच समिति ये जांच करने वाली है कि फैज की ये नज़्म हिन्दू विरोधी है या नहीं। फिर क्या था, आलोचनाओं का दौर भी चला कि आखिर कैसे किसी शायर की कल्पना को यूं सांप्रदायिक रंग दे दिया गया, लेकिन फिर कानपुर IIT प्रबंधन सामने आया और सफाई दी कि जांच तो भड़काऊ भाषण देने की हो रही है।
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अब सवाल ये कि आखिर फैज की इस कविता पर इतना बवाल क्यों ? खासकर नागरिकता के कानून के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों के दौरान इसे गाने पर इतना हंगामा क्यों, क्योंकि इसे रचते वक्त शायद ही फैज को भी इस बात का इल्म रहा होगा कि दशकों बाद उनकी नज़्म भारत में यूं गुनगुनाई जाएगी। लेकिन उसे सांप्रदायिक रंग मिलेगा ऐसा शायद ही उन्होने सोचा होगा। क्योंकि जब फैज ने ये लिखा था उस वक्त का प्रसंग कुछ और ही था। फैज अहमद फैज ने आधुनिक उर्दू शायरी को नई ऊंचाइयां दीं। उनकी इस कविता को पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जिया-उल-हक ने हुकूमत विरोधी मानते हुए पाकिस्तान में बैन कर दिया था और उन्हें आधा जीवन पाकिस्तान के बाहर ही गुजारना पड़ा।
“बस नाम रहेगा अल्लाह का, जो ग़ायब भी है हाज़िर भी”
फैज की कविता की यही वो दो पंक्तियां है जिन्हे लेकर आजकल हमारे देश में एक बहस छिड़ गई, जबकि य़े वही फैज़ हैं जिन्होंने पाकिस्तान की हुकूमत के खिलाफ हल्ला बोला था। आज की पीढ़ी भले ही उनसे इतना वाकिफ ना हो लेकिन कविता-शायरी के जानने वालों से लेकर सोशल मीडिया की गलियों तक में उनके शेर हमेशा जिंदा रहते हैं। जब उन्होंने शायरी या गज़ल लिखना शुरू किया तो उनकी कोशिश दबे-कुचलों की आवाज को उठाना ही था और यही कारण रहा कि उनकी लेखनी में बगावती सुर ज्यादा दिखे। अपनी शायरी के जरिए फैज़ ने पाकिस्तान की हुकूमत के खिलाफ आवाज़ उठानी शुरू कर दी, जो सिलसिला आखिर तक चलता रहा। 1951 में गिरफ्तार किए गए फैज़ अहमद फैज़ को चार साल जेल में रखा गया। 1955 में वह बाहर आए। हालांकि, इसके बाद भी उनका लेखन जारी रहा। जब 1977 में तत्कालीन आर्मी चीफ जिया उल हक ने वहां तख्ता पलट किया तो फैज़ अहमद फैज़ काफी दुखी हुए। इसी दौरान उन्होंने ‘हम देखेंगे’ नज़्म लिखी, जो जिया उल हक के खिलाफ था। 1984 में फैज़ अहमद फैज़ का लाहौर में निधन हो गया। दिलचस्प ये रहा कि फैज अपने जाने के बाद और भी ज्यादा पढ़े गए। उनकी जिस नज्म पर हिंदुस्तान में सवाल हो रहे हैं, वह नज्म उनकी मौत के एक साल बाद पाकिस्तान में बगावत और प्रतिरोध का नारा बन गई थी। लाहौर के स्टेडियम में एक शाम पाकिस्तान की मशहूर गजल गायिका इकबाल बानो ने 50 हजार लोगों की मौजूदगी में ‘हम देखेंगे’ नज्म को गाकर इसे अमर कर दिया था। तब से लेकर आज तक इसे हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों मुल्कों के कई गायक अपनी आवाज दे चुके हैं।
अब भले ही कानपुर IIT का प्रबंधन इस पूरे प्रकरण पर सफाई दे रहा है लेकिन हमारे देश में या कहें खासकर यूपी में ये नया नहीं, लेकिन सवाल ये कि अगर महज भाषा के शब्दों को लेकर ऐसी प्रतिक्रिया देखी जाएगी तो क्या होगा भाषा का ? कुछ दिन पहले की ही घटना याद कीजिए जब पीलीभीत में एक प्राइमरी स्कूल के प्रिंसिपल को महज इसीलिए सस्पेंड कर दिया गया था कि उन्होने स्कूल मे छात्रों से इकबाल की कविता लब पे आती है दुआ स्कूल की प्रार्थना में गवाई थी। वही अल्लामा इकबाल जिन्होंने ‘सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा’ लिखा था, जो देश का राष्ट्रगीत भी है। उन्ही इकबाल ने साल 1902 में रची थी ये रचना ‘लब पे आती है दुआ’, जिसे गाना स्थानीय वीएचपी कार्यकर्ताओं को इतना नागवार गुजरा कि उन्होने बकायदा शिकायत दर्ज कराई और हैरानी इस बात की रही कि इस शिकायत पर तुरंत एक्शन भी ले लिया गया। हालांकि विवाद बढ़ने के बाद प्रिंसिपल का सस्पेंशन वापस हुआ। लेकिन ये घटना कई बड़े और गंभीर सवाल भी छोड़ गई।
इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह शायद ये है कि आज लोग ये समझने को तैयार नहीं हैं कि बहुत सी नज़्मे और रचनाएं अपने समय से परे हो जाती हैं और फैज भी कुछ ऐसे ही फनकार रहे। आज फैज की नज़्म हुक्मरानों को रास नहीं आ रही है। एक वक्त था जब उनके ही आला नेता अलग धाराओं के होते हुए भी फैज की कलम के मुरीद थे। एक वाक्या बताते हैं कि जब विदेश मंत्री के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी पाकिस्तान की आधिकारिक यात्रा पर थे तो वो प्रोटोकॉल तोड़कर फैज से मिलने उनके घर जा पहुंचे और वो भी उनकी ही लिखी कुछ लाइनों को उनकी जुबां से सुनने। फैज भावुक हो उठे। यहां तक कि वाजपेयी ने उन्हें भारत में आकर बसने का न्यौता तब दे दिया और एक आज का वक्त है जबकि उनकी रचनाओं को लेकर सत्ता कुछ सुनने को तैयार नहीं। सोचिए अगर फैज खुद यहां होते तो क्या करते ।
-वासिन्द्र मिश्र