कोरोना महामारी को लेकर भले ही देश भर में लॉकडाउन और अनलॉक के बीच जनता आर्थिक हालात और स्वास्थ्य को लेकर अपनी चिंताओं से जूझ रही हो देश के सियासी मिज़ाज पर कुछ खास फ़र्क़ नहीं पड़ा है । इतना ज़रूर है कि कोरोना ने अगर आपकी और हमारी जिंदगी में बदलाव ला दिए हैं तो सियासी संस्कृति भी बदल गई है । इन बदलावों को अपनाने में भी सबसे आगे भारतीय जनता पार्टी है। अमित शाह की वर्चुअल रैलियाँ इसका उदाहरण हैं
शाह बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में तकनीक के सहारे लाखों लोगों को संबोधित कर चुके हैं। वर्चुअल रैली के इस नए सियासी कल्चर में आपको विकसित पश्चिमी देशों की चुनावी रैलियों की झलक भी मिल सकती है। लॉकडाउन और महामारी के बीच मजबूरन ही सही लेकिन भारत में ये बदलाव नज़र आने लगा है। बीजेपी की वर्चुअल रैलियां, सोनिया, राहुल और प्रियंका गांधी की वर्चुअल बातचीत बदलते सियासी संस्कृति का उदाहरण हैं।
इन रैलियों में पारंपरिक तौर पर स्टेडियम या बड़े मैदान में होने वाली रैलियों सी भीड़ नहीं है लेकिन ऑडिएंस है । ये ऑडिएंस स्मार्टफोन, यूट्यूब, फेसबुक लाइव, व्हाट्सएप ग्रुप और एलईडी स्क्रीन के जरिए जुट रही है। कोरोना महामारी के बाद बदले दौर में ये न्यू नॉर्मल बन रहा है जहाँ लाखों की संख्याँ में भीड़ नहीं जुटाई जा रही लेकिन एलईडी स्क्रीन की व्यवस्था की जा रही है ।
वर्चुअल रैलियों में पारंपरिक रैलियों सा दर्जनों बसों में भरे समर्थकों का शोर नहीं है, इन समर्थकों के लिए चाय-नाश्ता, भोजन पानी की व्यवस्था नहीं है। बैनर्स-पोस्टर्स के जरिए प्रचार नहीं हो रहा लेकिन प्रदेश के हजारों बूथों पर हज़ारो एलईडी लगाने के इंतजाम ज़रूर किए जा रहे हैं। वर्चुअल रैली में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए जनता तक पहुँचना आसान है । इसे आम रैली की तरह टीवी पर भी लाइव दिखाया जा सकता है। बाकी भीड़ के सबसे अच्छे शॉट्स दिखाकर शक्ति प्रदर्शन करने के बदले ज्यादा से ज्यादा लोगों को वर्चुअल रैली से जोड़ने का रिकॉर्ड बनाने की होड़ है।
लेकिन इस सबने चुनावी खर्चे की बहस भी तेज कर दी है क्योंकि विपक्ष एलईडी लगाने जैसे खर्चीले माध्यम को लेकर बीजेपी पर हमले कर रहा है। अपनी एक रैली में केंद्रीय गृहमंत्री ने दावा किया कि उनकी रैली 72000 एलईडी स्क्रीन के जरिए लोगों तक पहुँच रही है । एक-एक एलईडी स्क्रीन की कीमत लाखों में होती है । विपक्ष इसीलिए ये आरोप लगा रहा है कि इतनी खर्चीली रैलियाँ बीजेपी ही आयोजित कर सकती है।
भले ही अमित शाह इस बात पर जोर दे रहे हों कि इन रैलियों का चुनाव से लेना-देना नहीं है लेकिन ये सब जानते हैं कि बिहार और बंगाल में चुनाव हैं और वर्चुअल रैलियों के जरिए उन्होंने चुनावी बिगुल फूंक दिया है । ऐसे में एक बार फिर चुनावी खर्चों पर चर्चा शुरू हो गई है। सवाल ये उठते हैं कि एक-एक रैली पर अरबों खर्च करने वाली पार्टियाँ नैतिकता और साफ-सुथरी राजनीति का झंडा बुलंद करने की हिम्मत कैसे जुटा पाती हैं?
भारत में साफ-सुथरे लोकतंत्र और स्वस्थ राजनीति को बढ़ावा देने के लिए चुनाव सुधार की बात लंबे अरसे से की जा रही है । पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था “राजनीति ज्यादा से ज्यादा पैसों पर निर्भर होती जा रही है । इसके साथ ही राजनीति से विचारधारा का भी लोप हो रहा है, लेकिन हमारे सोचने भर से भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो जाएगा। इस बुराई से हर स्तर पर लड़ने की ज़रूरत है । भ्रष्टाचार को खत्म करने की जंग राजनीति से धनबल के प्रभाव को खत्म करने के साथ शुरू होनी चाहिए । दूसरे इससे मुकाबले के लिए व्यापक स्तर पर चुनाव सुधार करने की ज़रूरत है।” हालाँकि सालों बाद भी इसपर अमल नहीं किया जा सका है, इसके उलट चुनाव भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा ज़रिया बनता जा रहा है।
चुनाव सुधार के लिए कई बार सुझाव दिए गए, ये भी कहा गया कि चुनाव के लिए फंडिंग सरकार के हाथों में ही हो लेकिन कभी भी आम राय नहीं बन पाई। फंडिंग की शर्तें क्या होंगी, कौन- कौन सी पार्टियाँ इसकी हक़दार होंगी, जैसे मुद्दों पर हमेशा बहस छिड़ी रही है। लिहाजा अभी तक चुनावी खर्चे की सीमा तय किए जाने के अलावा इस पर कुछ भी नहीं किया जा सका है और इस पर भी प्रभावी रोक कभी नहीं लगाई जा सकी है।
कुल मिलाकर बदले माहौल में सियासत ने अपना रंग-ढंग बदल लिया है और सुधार जैसे पुराने मुद्दे हमेशा की तरह उलझे हुए हैं जिसके लिए किसी भी दल की सरकार में इच्छाशक्ति नहीं दिखती ।