वैश्विक महामारी के तौर पर पूरी दुनिया को अपने शिकंजे में लगातार कसता जा रहा है कोरोना वायरस, लेकिन इस मुश्किल काल में वायरस के डर की बजाय दुनिया अलग ही तरह के डर के माहौल को पालने-पोसने में जुटी है। हालांकि इसके पीछे की वजह भी कम दिलचस्प नहीं। कहते हैं कि जब खुद की नाकामियां भारी पड़ने लगें तो सामने वाले को जिम्मेदार ठहराकर उसी पर पूरा ठीकरा फोड़ दो। फिर कैसी जवाबदेही और कैसा समाधान ? बिल्कुल वैसे ही जैसे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
मौजूदा दौर में चीन और अमेरिका के बीच जो चल रहा है, वो कुछ ऐसा ही इशारा करता है। हालांकि हमारा देश में इसमें पीछे नहीं। कोरोना संकट के इस दौर में डर कहें या कि पूर्वाग्रह के एक ऐसे ही रूप का सामना हमने भी किया या फिर कहें कि अभी भी इसका प्रचार-प्रसार जारी है, नाम है इस्लामोफोबिया। सवाल ये है कि अगर हम इस संक्रमण में उलझ गए तो कोरोना के असल संक्रमण को कौन रोकेगा ?
इस्लामोफोबिया जैसे भारी भरकम शब्दों की आड़ में असल समस्या से मुंह मोड़ना कितना आसान हो चला है। ये और बात है कि पीएम समेत कई संगठनों ने ऐसे जुमलों से बचने की सलाह दी लेकिन लंबे चले ऐसे दुष्प्रचारों ने देश में एक खाई तो बना ही दी है। कोरोना के खिलाफ लड़ाई तो जारी है लेकिन खेमेबंदी की जद में अब ये कितनी कारगर होगी ? आगे पता चलेगा। लेकिन माहौल बिगड़ा है, इसमें कोई दो राय नहीं।
उससे भी बड़ी जंग दिख रही है वैश्विक स्तर पर, जहां कोरोना ने सुपरपावर अमेरिका को वो आइना दिखाया है जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की होगी। ट्रंप प्रशासन का हर हथियार कोरोना के आगे फेल हो रहा है वो भी चुनावी मौसम में। लिहाजा निशाने पर आ गया चीन, जहां से कोरोना फैला। इस बात में कोई शक नहीं कि चीन दुनिया का गुनहगार है, लेकिन जिस तरह से अमेरिका में और अब पूरी दुनिया में ट्रंप प्रशासन “चीन फोबिया” की आड़ में अपनी नाकामियों का ठीकरा चीन के सिर मढ़ रहा है, वो बताता है कि फोबिया की ये सियासत भी कम दिलचस्प नहीं।
ग्रीक भाषा के शब्द “फोबिया” से जुड़ा विश्व सियासत का इतिहास बेहद रोचक रहा है। याद कीजिए ये तमाम जुमले- CIA फोबिया,ISI फोबिया,RAW फोबिया Hamas फोबिया, Mosad फोबिया, Islamophobia, China फोबिया, Pakistan फोबिया और न जाने कितनी ही प्रजातियां, जिन्हें तमाम देशों के हुक्मरानों ने न केवल गढ़ा बल्कि जनता की नज़र के धोखे के तौर पर पाला-पोसा भी।
अगर दुनिया के आधुनिक इतिहास की घटनाओं का उल्लेख करें तो भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कौन नहीं जानता। आयरन लेडी के तौर पर पहचान रही है उनकी। विपक्षी भी उन्हें दुर्गा कहा करते थे। बावजूद इसके जब भी वो ख़ुद को राजनैतिक तौर पर घिरा पाती थीं तो देश की आंतरिक समस्याओं के लिए भी बार-बार अमेरिका और उसकी ख़ुफ़िया एजेंसी CIA का नाम लिया करती थीं। फिर सियासत और चाटुकारिता तो हमेशा से ही एक दूसरे के पर्याय रहे है, लिहाजा समर्थक आंख मूंद कर अपने नेता को खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
ऐसा उस दौर में भी दिखा, जब कांग्रेस पार्टी के तमाम नेता भी रोज़ कहीं न कहीं CIA के खिलाफ बोलते मिल जाते थे। एक नेता तो संसद के भीतर CIA विरोधी तख्ती लेकर जा पहुंचे, फिर तो खुद इंदिरा जी को सामने आकर उन्हें रोकना पड़ा। पड़ोसी देश पाकिस्तान भी गाहे बगाहे इसी राह पर निकल पड़ता है। जब देश की अंदरूनी मुश्किलें बेकाबू हो जाती हैं तो भारतीय खुफिया एजेंसी RAW को जिम्मेदार बताने लगता है। वहीं कई बार भारत में भी दिख जाती है ISI फोबिया या Pakistan फोबिया की तस्वीर।
कुल मिलाकर लब्बोलुआब ये है कि दुनिया के ज़्यादातर हुक्मरान अपने मुल्क की आंतरिक समस्याओं से अपनी जनता का ध्यान भटकाने के लिए पड़ोसी मुल्कों को ज़िम्मेदार ठहराते रहे हैं। हालांकि ये उस देश की जनता के राजनैतिक विवेक पर भी निर्भर करता है कि वह अपने शासक की किन बातों पर कितना भरोसा करती है ? पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कहा करते थे कि तुम्हें अपना पड़ोसी चुनने या उसे नकारने का अधिकार नहीं है। इसलिए पड़ोसी के साथ अच्छा रिश्ता रखने की कोशिश हमेशा होती रहनी चाहिए।
इतिहास में कई उदाहरण ऐसे भी हैं जब एक देश ने दूसरे देश पर आक्रमण करके भौगोलिक और क्षेत्रीय नक्शे को बदलने की कोशिश की, लेकिन इन कामों को बहुत अच्छा नहीं माना गया…बड़े बड़े दार्शनिक भी Love Thy Neighbour की नीति के समर्थक रहे हैं, यानि मानवता के कल्याण और विकास के लिए दुनिया को सिर्फ शांति,सद्भाव और भाईचारे की डोर से ही बांध रखा जा सकता है। कम से कम covid-19 महामारी ने तो यही सबक़ दिया है। हालांकि मौजूदा दौर में दुनिया और उसकी सियासत जिन घुमावदार रास्तों से गुजर रही है उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है :
फ़िज़ा में ज़हर भरा है जरा संभल कर चलो,
मुखालिफ आज हवा है जरा संभल कर चलो,
कोई देखे न देखे बुराइयां अपनी…
खुदा तो देख रहा है जरा संभल कर चलो।
– वासिंद्र मिश्र