CAA के नाम पर…सामाजिक ‘हिस्सेदारी’ की तलाश !
नई दिल्ली : CAA को लेकर देश भर मे जो विरोध हो रहा है वो स्वत: है। अंदर की आवाज पर होने का दावा है, तो जाहिर है इसके दूरगामी परिणाम भी होने तय हैं, लेकिन एक बड़ी सच्चाई भी है जिससे इंकार नहीं किया जा सकता कि CAA के विरोध की आड़ में एक नए तरीके का सामाजिक, राजनैतिक, ध्रुवीकरण भी होता जा रहा है। ऐसा लगता है कि जिस ध्रुवीकरण की कोशिश अंबेडकर से लेकर पेरियार, ज्योतिबा फुले और कांसीराम ने की थी, उनके लिए अब जाकर देश में उपयुक्त वातावरण बन चुका है। CAA का विरोध दलितों, अल्पसंख्यकों और OBC के मन में घरकर गई। उस मनुवादी सोच के खिलाफ है जिसका वो सदियों से विरोध करते रहे हैं।
दरअसल नागरिकता कानून के विरोधियों का मानना है कि मौजूदा सरका, सत्तारुढ़ दल और उसका मातृ संगठन RSS धीरे-धीरे भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं और हिंदू राष्ट्र बनाते ही एक बार फिर हजारों साल पुरानी उस मनुवादी व्यवस्था को स्थापित करने की कोशिश होगी जिसके अंतर्गत समाज के लगभग 85 फीसदी आबादी को हजारों साल तक सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक रुप से वंचित करके रखा गया था। लिहाजा ऐसी व्यवस्था के लागू होने के डर ने ही दलितों, अल्पसंख्यकों और OBC को एकजुट हो एक मंच पर आने को मजबूर कर दिया है। वैसे इनका ये डर बेजा भी नहीं है, क्योंकि हालिया वक्त में आए कुछ बयानों खासकर अंतर्राष्ट्रीय मंच से आए बयानों ने इन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या वाकई देश हिन्दुत्व की राह पर आगे बढ़ने को तैयार है।
दावोस में विश्व आर्थिक मंच में अपने संबोधन के दौरान अमेरिकी समाजसेवी जॉर्ज सोरोस ने सरकार पर भारत को ‘हिंदू राष्ट्रवादी देश’ बनाने का आरोप लगाया। उनका ये बयान ऐसे समय में आया जब मोदी सरकार विवादास्पद नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर देश के कई हिस्सों में विरोध झेल रही है। सोरोस ने आगे कहा कि पीएम मोदी ने मुस्लिम बहुल अर्ध-स्वायत्त कश्मीर पर दंडात्मक उपाय लागू किए और अब लाखों मुसलमानों को उनकी नागरिकता से वंचित करने की धमकी मिल रही है। जाहिर है ऐसे बयान समुदाय विशेष को एक अनजानी असुरक्षा की भावना से भरते हैं और इनका ही नतीजा होते हैं ऐसे विरोध प्रदर्शन जो सामाजिक आंदोलन में बदलते जा रहे हैं ।
दिल्ली के JNU, जामिया, AMU से होते हुए शाहीन बाग से शुरु हुआ ये सत्याग्रह आंदोलन अब लगभग पूरे देश को अपने प्रभाव में ले चुका है। इस आंदोलन में शामिल लोगों में अल्पसंख्यक, दलित और OBC की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है। अगर हम इस आंदोलन में शामिल होने वाले नेताओं, कार्यकर्ताओं और महिलाओं पर नज़र डाले तो इससे एक बात साफ है कि वामपंथी और समाजवादी ताकतों के कमजोर होने से खाली हुए राजनैतिक शून्यता को प्रभावी तरीके से भरने की कवायद चल रही है। सबसे खास बात यह है कि इस आंदोलन का नॉर्थ इंडिया की लगभग सभी प्रमुख गैर बीजेपी दलों के अलावा पंजाब के शिरोमणी अकाली दल सहित नॉर्थ ईस्ट के दलों का भी समर्थन हासिल है। ऐसा लगता है कि लगभग 70-80 साल तक कठिन परिश्रम करके RSS ने जिस हिंदू एकीकरण की कोशिश की थी उसको विघटित करने की मुहिम तेज हो गई है। अब ये कहां जाकर रुकेगी , ये देखना दिलचस्प होगा। लेकिन एक बात तो तय है कि जो कुछ भी देश में अब हो रहा है वो साधारण नहीं है,लिहाजा हुक्मरानों को भी इसे सियासत के चश्मे से देखने की बजाय इस आंदोलन को गहराई तक समझना होगा और वक्त रहते साधना भी होगा। इससे पहले की कहीं देर न हो जाए।
-वासिन्द्र मिश्र