हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए बिगुल बज चुका है। तमाम सियासी दल चुनावी मैदान में ताल ठोंक रहे हैं, लेकिन नजरें उन क्षेत्रीय क्षत्रपों पर टिकीं है, जिनकी तूती एक वक्त में हरियाणा में बोलती थी। बात हो रही है हरियाणा के उन तीन ‘लाल’ नेताओं की, जिनकी सियासी धमक बड़े-बड़ों को हैरान करती थी। खासकर चौधरी देवीलाल की। ताऊ के नाम से मशहूर देवीलाल का परिवार आज अपने सियासी वजूद की निर्णायक लड़ाई लड़ रहा है, क्योंकि कुनबा दो धड़ों में बंटा है और चुनाव चौटाला Vs चौटाला हो गया।
INLD की कमान ओमप्रकाश चौटाला और उनके छोटे बेटे अभय चौटाला के हाथों में है तो वहीं बड़े बेटे और दोनों पोतों ने मिलकर नई पार्टी जननायक जनता पार्टी बना ली और आज परिवार एक दूसरे के ही खिलाफ खड़ा हो गया है, लेकिन दिलचस्प ये है कि अपनी चुनावी नैया पार लगाने के लिए दोनों ही धड़ों को सहारा आज भी चौधरी देवीलाल के नाम का ही है, तभी तो चुनाव से पहले दोनों ही धड़ों ने पिछले ही महीने चौधरी देवीलाल की जयंती के बहाने अपने-अपने वोट बैंक को साधने की कोशिश की, खासकर जाट वोटबैंक को। हरियाणा में करीब 28 फीसदी जाट वोटर्स हैं और 90 विधानसभा सीटों में से 30 सीटों पर किंग मेकर की भूमिका में हैं। ये और बात है कि 2014 में बीजेपी ने गैर जाट कार्ड खेलकर तमाम पुराने सियासी समीकरण ध्वस्त कर दिए।.खैर, बात हो रही थी हरियाणा में विरासत की सियासत की।
एक वक्त हरियाणा की पहचान पूर्व उप प्रधानमंत्री देवीलाल, पूर्व मुख्यमंत्री बंसीलाल और भजनलाल के नाम से होती रही है। हरियाणा की सियासत बीते करीब चार दशकों के दौरान तीन लाल- बंसीलाल, देवीलाल और भजनलाल के इर्द-गिर्द ही सिमटी रही है। हरियाणा के ये तीनों ‘लाल’ न केवल प्रदेश की सत्ता पर काबिज हुए, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भी खूब चमके, लेकिन हरियाणा के मौजूदा सियासी समीकरण में इन तीनों की करिश्माई नेताओं के परिवारों को अपना सियासी वजूद बचाने के भी लाले पड़ रहे हैं।
देवीलाल दो बार हरियाणा के सीएम रहे, वो पंजाब में विधायक रहे और अलग-अलग सरकारों में देश के डिप्टी पीएम भी बने। उनके बाद सियासी विरासत बेटे ओमप्रकाश चौटाला ने संभाली और चार बार हरियाणा के सीएम रहे, लेकिन परिवार की तीसरी पीढ़ी खुद को साथ रखने में नाकाम रही। INLD और JJP के तौर पर परिवार दो हिस्सों में है और जोनों ही वजूद के लिए संघर्ष कर रही हैं, जबकि ये वही परिवार है जिसके मुखिया ताऊ देवीलाल की पार्टी ने 1987 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में 90 में से 85 सीटें जीतकर सियासत में तहलका मचा दिया था, लेकिन तीन दशकों के सफर में वो करिश्मा धीरे धीरे खोता ही चला गया।
हालांकि चौटाला परिवार कोई पहला ऐसा परिवार नहीं है, जहां वक्त के साथ परिवार के मुखिया का सियासी करिश्मा खत्म होता चला गया या फिर परिवार में विरासत की सियासत ने अपना रंग दिखाया। देश में ऐसे कई सियासी परिवार हैं जो इसी मोड़ से या तो गुज़र रहे हैं या फिर गुज़र चुके हैं। फिर चाहे वो यूपी में मुलायम कुनबे की जंग हो, जहां मुलायम की विरासत पर कब्जे के लिए अखिलेश और चाचा शिवपाल में जबरदस्त रस्साकशी दिखी, लेकिन दोनों ही मुलायम के करिश्मे को बरकरार रखने में लगभग नाकाम ही साबित हुए। कुछ ऐसा ही हाल महाराष्ट्र में शिवसेना में दिखा, जहां बालासाहेब ठाकरे की सियासत को साधने के लिए दोनों चचेरे भाई उद्धव और राज में जमकर खींचतान हुई लेकिन आज शिवसेना का वो जलवा नहीं, जो बाला साहेब के जीते जी था। वहीं दक्षिण की सियासत में धमक रखने वाली डीएमके का भी कुछ ऐसा ही हाल है। करुणानिधि की पार्टी पर कब्जे की लड़ाई में दोनों सगे भाई अलागिरी और स्टालिन एक दूसरे के दुश्मन बन गए और दोनों ही पार्टी की साख बचाने में नाकाम रहे। वहीं बिहार में कभी सत्ता की धुरी रही आरजेडी भी इस दर्द से गुजरी। आज आरजेडी न केवल सत्ता से बाहर है बल्कि वजूद की जंग में लगातार हार रही है, तो वहीं लालू के दोनों लालों के बीच आरजेडी की कमान को लेकर खींचतान भी किसी से छिपी नहीं।
इन तमाम क्षेत्रीय दलों के मुखियाओं ने राष्ट्रीय दलों से लोहा लेकर न केवल अपनी पहचान बनाई बल्कि अपनी पार्टीयों की साख को भी बुलंदियों पर पहुंचाया, लेकिन शायद उनके वंशजों में वो जज्बा ही नही बचा कि वो व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाओं को दरकिनार कर विरासत को संभाल सकें। यही वजह है कि तमाम क्षेत्रीय क्षत्रप आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने को मजबूर हैं। शायद यही सियासत है जहां हर रिश्ता नफे-नुकसान की कसौटी पर ही कसा जाता है फिर चाहे वो सियासी विरासत ही क्यों न हो।
– वासिन्द्र मिश्र
@vasindra_mishra