
देश फिर चुनाव के मुहाने पर आ पहुंचा है लिहाजा तमाम सियासी दल चुनावी तरकश से हर वो तीर आजमा रहे हैं जो उनके लिए सत्ता की सीढ़ी साबित हो सके । एक ऐसा वोटबैंक बन सके जो कम से कम चुनावों में उनके जीत की गारंटी बन सके और सियासी दलों की ये तलाश पूरी होती है किसानों पर जाकर । लेकिन ये भी कड़वा सच है कि सरकार कोई भी हो, सियासी दल कौन सा भी हो देश का अन्नदाता हर बार छला गया। किसान की फसल उसके मुंह में रोटी डाल पाई या नहीं इससे किसी को मतलब नहीं रहा । हां, किसानों के नाम पर वोटो की फसल हर बार काटी गई ।
भारत जैसे कृषिप्रधान देश में भी किसान परेशान है । इतना परेशान कि कई बार वो खेती छोड़ने की बात भी कह उठता है। समझिए कि किसानों की पीर कितनी भारी हो चली है । फिर जेहन में सवाल आता है कि आखिर क्यों आजादी के 7 दशक बीत जाने के बाद अलग अलग सियासी दलों की सरकारें बनने के बावजूद इनकी समस्याओं का समाधान क्यों नहीं निकल पा रहा है तो इसकी वजह जाननी भी जरूरी हो जाती है, दरअसल हमारे देश में किसान अब नागरिक नहीं रहा वो एक वोटबैंक बन गया है.. जिसे हरकोई अपने मुताबिक इस्तेमाल करता रहा है । वक्त-वक्त पर किसानों को फौरी राहत के नाम पर कभी कर्जमाफी तो कभी सस्ते बीज -खाद की योजनाओं का झुनझुना तो पकड़ाया गया लेकिन किसी ने किसानों की मुश्किलों को जड़ से खत्म करने की शायद कभी सोची ही नहीं। कारण भी साफ है कि अगर समस्या ही खत्म हो जाएगी तो किसानों को वोटबैंक के तौर पर कैसे इस्तेमाल किया जा सकेगा । चुनावी मौसम में किसानों का दर्द बांटने वाले नेता, चाहे वो सत्ता पक्ष के हों या फिर विपक्ष के , चुनाव बाद ऐसे रंग बदल गए कि कोई गिरगिट भी क्या बदल पाएगा।
बेचारा किसान भी क्या करे राहत की आस में चुनावी वादों के जाल में फंसने से खुद को रोक नहीं पाता । पिछला चुनाव याद है न जब 2014 में सत्ता परिवर्तन हुआ तो इसमें बड़ी भूमिका किसानों की भी रही । उम्मीद यही कि इस बार तो किसानों की किस्मत कोई सकारात्मक करवट जरुर लेगी लेकिन अब जबकि मौजूदा सरकार का कार्यकाल आखिरी पड़ाव में है तो किसान फिर खाली हाथ मलता ही दिख रहा है। किसी ने सच ही कहा है :
दीवार क्या गिरी किसान के कच्चे मकान की,
नेताओं ने उसके आँगन में रास्ता बन दिया ।
बीते कई साल तमाम किसान आंदोलनों के गवाह बने । चाहे महाराष्ट्र के किसानों का वो आंदोलन , जो बेहद शांति से चला लेकिन उनकी गूंज ने सरकार को अंदर तक हिला दिया या फिर जंतर मंतर पर हुए तमिलनाडु के किसानों का वो आंदोलन जिसकी तस्वीरों ने पूरे देश को सोचने पर मजबूर कर दिया जो किसान देश का पेट भरता है वो आज अपने ही साथी किसानों के कंकालों के साथ अपना ही मलमूत्र पीने को मजबूर हो गया । देश का किसान आज किस मोड़ पर आ खड़ा हुआ है कि अपने हक की आवाज बुलंद करने पर लाठियां खाने को मजबूर है या फिर सिस्टम की गोलियां । बीते साढे चार सालों तक अनदेखी के शिकार किसान एक बार फिर सियासी दलो की पहली पसंद बन गए हैं । पूरा का पूरा राजनीतिक तंत्र और सियासत आज किसानों को सिर माथे बिठाने के लिए भागमभाग कर रही है, जो सरकारें अब तक किसानों से जुड़े तमाम मुद्दों पर चाहे वो कर्जमाफी हो , उपज का सही दाम हो या फिर उनकी जमीनों का मुआवजा हो, सभी पर उदासीन बनी हुई थीं । अचानक ही उन्हें किसानों की हर मुश्किल पर दर्द का अहसास होने लगा। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ इसका ताजा उदाहरण हैं जहां किसानों के मुद्दो को उठाकर सत्ता के शीर्ष तक पहुंची कांग्रेस ने सबसे पहले किसानों से किए वायदे को पूरा किया। आखिर 2019 में एक बार फिर इन्ही किसानों को साधना जो है।
हाल के सालों में हुए किसान आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों ने एक बार फिर सोचने को मजबूर कर दिया है कि आखिर अन्नदाता इतना बेचैन क्यों है। राष्ट्रीय किसान आयोग के पूर्व अध्यक्ष एमएस स्वामीनाथन ने बहुत पहले ही किसानों के अंदर की इस उथलपुथल को पढ़ लिया था जब उन्होने कहा था देश के ग्रामीण इलाकों में कुछ गलत और बहुत ही गंभीर हो रहा है। 1950 के बाद से देश की जीडीपी में कृषि का हिस्सा लगातार घटता ही रहा जो कभी 45 फीसदी था वो अब 16-17 फीसदी तक गिर गया और इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह किसानों की दुर्दशा है। कर्जमाफी और फसलों के गिरते दामों को लेकर किसान आंदोलन कर रहे हैं कहीं सड़कों पर दूध बहा रहे हैं तो कहीं फसलों को सड़कों पर फेंक रहे हैं। मध्यप्रदेश के छोटे से गांव के किसान ने टमाटर की 1000 पेटियां सड़कों पर यूं ही फेंक दीं क्योंकि 25 किलो की पेटी महज 60 रुपए में बिक रही थी। फसलों के दाम ऐसे पहले कभी नहीं गिरे थे । लेकिन किसानों का दर्द सुनने वाला कोई नहीं ..राज्य सरकारों ने अनदेखी की तो किसान उम्मीदों के साथ दिल्ली तक पहुंचे लेकिन यहां भी कहानी वैसी ही रही ।
विदर्भ, बुंदेलखंड, पूर्वोत्तर, दक्षिण ..देश का कोई भी हिस्सा हो किसान की हालत एक सी बदतर है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि दूसरे क्षेत्रों की तरह ही कृषि क्षेत्र में भी बड़े जोखिम हैं लेकिन मौजूदा वक्त में सबसे बड़ा जोखिम बनकर उभरी है सियासत …जो एक ऐसा चक्रव्यूह बन गई है जिसमें न चाहते हुए भी किसान बार बार हर बार फंस ही जाता है। लेकिन कहते हैं कि काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती। लिहाजा अब वक्त आ गया है कि सियासतदानों को ये समझना होगा कि किसान की ये आह अगर ऐसे ही दिल से निकाली जाएगी, क्या समझते तुम कि ये खाली जाएगी ।
-वासिन्द्र मिश्र
सौजन्य: विकल्प मीडिया