दौर अगर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का है और धर्म अगर दीर्घकालिक राजनीति है और अगर इस राजनीति की अगुवा बीजेपी हो तो फिर धर्म की राजनीति से पीछे हटना भारतीय जनता पार्टी के लिए घातक सिद्ध हो सकता है ।
क्योंकि राम मंदिर को आंदोलन बनाने वाली बीजेपी अगर सत्ता में अपने कार्यकाल के अंतिम पड़ाव पर है । और अगर इसी सत्ताधारी पार्टी का इतिहास कुछ इस तरीके का रहा हो कि लगभग हर दूसरी राजनीतिक रैली में से, अगर राम के नाम का जिक्र किया जाता रहा हो, तो फिर सवाल तो उठेंगे और उन सवालों की कुछ फ़ेहरिस्त में कुंभ के धर्मसंसद का नाम भी होगा। और आज जिक्र भी इसी का किया जायेगा कि आखिर चुनाव आते ही बीजेपी को मर्यादापुरूषोत्तम की याद क्यों आती है ?
सवालों की इसी पंक्ति में एक सवाल इस बात को लेकर होगा कि क्या कुंभ से निकला धर्मादेश बीजेपी की सीटों को प्रभावित कर सकता है?

कुंभ में साधुओं की मांग
देश भर के कोने कोने से इकट्ठा होने वाले साधु संतों की एक ही मांग है कि मोदी सरकार अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण कराये। स्थिति कोई भी क्यों न हो क्योंकि देश ने मोदी को प्रधानमंत्री और योगी को मुख्यमंत्री इसीलिए चुना था ताकि अयोध्या मंदिर का निर्माण हो सके ऐसा कहना है महंत नरेंद्र गिरी महाराज का।
इसके अलावा अगर बात की जाये कुंभ में इकट्ठा होने वाले साधुओं की तो ये साधु केवल पहाड़ों जंगलों और गुफाओं के अलावा करोड़ों-करोड़ों लोगों के बीच से होकर आते हैं इनके मत केवल इनके नहीं होते है ये जब कोई बात कहते है तो उसके पीछे एक बहुत बड़ी जनभावना होती है। ये बात अगर समय पर बीजेपी नहीं समझी तो समझने के लिए फिर वक्त ही नहीं रहेगा ।
नोटा का असर देख चुकी बीजेपी
हाल ही में हुए पांच विधानसभा के चुनाओं में से 3 बड़े राज्यों से बीजेपी के हाथ से सत्ता निकलने के कारणों की अगर पड़ताल करें तो पता चलता है कि इसमें सवर्णों की नाराजगी का अहम रोल है क्योंकि अगर देखा जाये तो सवर्ण बीजेपी से नाराज था तो सिर्फ इसलिए क्योंकि एससी एसटी कानून पर न्यायालय द्वारा किये गये कुछ कानूनी बदलावों को संविधान में संसोधन कर पलट दिया गया था। जिससे सवर्ण भारी नाराज हुए थे। ध्यान देने वाली यहां बात यह है कि जो सवर्ण संशोधन से नाराज थे विशेषरूप से उनके खेमे मे ही राम मंदिर निर्माण की मांग जोरों पर है ।भाजपा इसे अगर नजरअंदाज करेगी तो लोकसभा चुनाव की स्थिति हाथ से निकल सकती है।