नई दिल्ली : भारतीय इतिहास वीरता की कहानियों से भरा पड़ा है। राजतन्त्र का जब बोलबाला था, तब कई राजाओं ने अपनी वीरता का प्रदर्शन किया और दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए। बाद में जब देश में अंग्रेजी हुकूमत स्थापित हुई, तो राजे-रजवाड़े का शासन और प्रभुत्व ख़त्म हो गया। लेकिन तब भी कई ऐसे वीर आगे आये, जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत की नींद हराम कर दी। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में जिस अदब के साथ भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाष चन्द्र बोस का नाम लिया जाता है, उसी अदब के साथ उधम सिंह का नाम लिया जाता है। उधम सिंह न सिर्फ देश के लिए जीए, बल्कि वो मरे भी तो देश के लिए।
अनाथ होना, अक्सर लोगों को गुमनामी के साए में धकेल देता है, लेकिन इस अनाथपन को उधम सिंह ने अपनी ताकत बना ली। 26 दिसंबर 1899 को पंजाब में संगरूर जिले के सुनाम गांव में पैदा हुए उधम सिंह के सर से बचपन में ही माँ-बाप का साया उठ गया। उन्हें और उनके बड़े भाई मुक्ता सिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। इसी अनाथालय में उसे उधम सिंह नाम भी मिला और उनके भाई का नाम रखा गया साधु सिंह। उधम सिंह के सर से 1917 में बड़े भाई का भी साया उठ गया और अब वो अब वो पूरी तरह से अनाथ हो गए थे।
1919 में पंजाब के जलियावाला बाग़ में हुए नरसंहार के बाद उधम सिंह ने स्वतंत्रता संग्राम में उतरने का फैसला किया और पढाई जारी रखने के साथ-साथ वो अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाई में भी भाग लेने लगे। जलियावाला बाग़ में हुए नरसंहार ने उनके मन में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ नफरत की भाव बो दिए और उन्होंने बदला लेने की ठानी। उधम सिंह की धीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने 21 सालों तक बदले की भावना को अपने सीने में दबाये रखा और आख़िरकार लंदन पहुंचकर 13 मार्च 1940 को माइकल ओ’ ड्वायर को मार कर अपना बदला पूरा किया।
दरअसल जलियावाला बाग़ में हुए नरसंहार के समय पंजाब का गवर्नर माइकल ओ’ ड्वायर था। इतिहास के जानकार बताते हैं कि जिस समय जलियावाला बाग़ में नरसंहार हुआ, उस समय उधम सिंह भी वहीं मौजूद थे, हालाँकि उसकी जान बच गयी। इसके बाद ही उन्होंने माइकल ओ’ ड्वायर से बदला लेने की ठानी। स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने के लिए वो अपने साथ गोला-बारूद भी रखने लगे थे, जिसके कारण अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें गिरफ्तार भी किया और पांच साल उन्होंने जेल में सजा काटी।
जेल में सजा काटने के बाद जब उधम सिंह बाहर आये तो फिर नए सिरे से अपनी लड़ाई को धार देना शुरू कर दिया। वो स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह के भी करीबी थे। जेल से बाहर आने के बाद अंग्रेजी हुकूमत की उनपर कड़ी नज़र थी, बावजूद इसके वो वे कश्मीर गए और गायब हो गए। बाद में पता चला कि वे जर्मनी पहुंच चुके हैं और फिर उधम सिंह लंदन जा पहुंचे। यहाँ उन्होंने माइकल ओ’ ड्वायर को मारने की तैयारी शुरू कर दी।
13 मार्च 1940 को, जब ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक बैठक चल रही थी, उस समय उधम सिंह भी वहां जा पहुंचे। इस बैठक में माइकल ओ’ ड्वायर भी वक्ता के तौर पर मौजूद था। उधम सिंह ने ओवरकोट पहन रखी थी और ओवरकोट में एक मोटी किताब छिपा रखी थी। इस किताब में बड़ी चतुराई से रिवॉल्वर रख दिया गया था। बैठक खत्म होने के बाद जब सब जाने लगे, तभी उधम सिंह ने किताब से रिवाल्वर निकाल कर माइकल ओ’ ड्वायर पर फायर झोंक दिया।
माइकल ओ’ ड्वायर गोली लगने से वहीं मर गया। हॉल में अफरा-तफरी मच गयी और सब अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे, लेकिन उधम सिंह वहां से भागे नहीं बल्कि निर्भीक होकर अपनी जगह पर बैठे रहे। गिरफ़्तारी के बाद ब्रिटेन में ही उनपर मुकदमा चला और उसे फांसी की सज़ा मुकर्रर की गयी। 31 जुलाई 1940 को उसे फांसी हो गई।
लोगों के बीच ये किस्सा आम है कि उधम सिंह ने जलियावाला बाग़ में लोगों के ऊपर फायर करने का आदेश देने वाले जनरल डायर को मारा था, लेकिन इतिहास के गहन अध्ययन से पता चलता है कि उधम सिंह ने जनरल डायर को नहीं, बल्कि पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओ’ ड्वायर को मारा था, वो भी लंदन जाकर। जनरल डायर की मौत 1927 में ही लकवे और कई दूसरी बीमारियों की वजह से हो चुकी थी। कई इतिहासकार ये भी मानते हैं कि माइकल ओ’ ड्वायर को उधम सिंह ने जलियावाला बाग़ नरसंहार का बदला लेने के लिए नहीं मारा था, बल्कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार को एक कड़ा संदेश देने और भारत में स्वतंत्रता के लिए जारी क्रांति को भड़काने के लिए माइकल ओ’ ड्वायर को लंदन जाकर मारा था।
उधम सिंह दुसरे ऐसे भारतीय थे, जिन्हें विदेश में फांसी दी गयी। उससे पहले मदन लाल ढींगरा को कर्ज़न वाइली की हत्या के लिए साल 1909 में देश के बाहर फांसी दी गई थी। 1940 में उधम सिंह को फ़ासी दे दी गयी, लेकिन उनका अवशेष भारत नहीं भेजा गया। आज़ादी के बाद चुनी गयी सरकार ने उनके अवशेष को भारत लाने के प्रयास किये और आख़िरकार 1974 में 31 जुलाई को ही उनका अवशेष भारत को सौंपा गया। उधम सिंह की अस्थियां सम्मान सहित उनके गांव लाई गईं जहां आज उनकी समाधि बनी हुई है। भारतीय इतिहास का जब कभी भी और कहीं भी जिक्र होगा, उधम सिंह का नाम जरुर लिया जायेगा। ये देश हमेशा उनकी वीरता से प्रेरणा प्राप्त करता रहेगा और दुश्मनों को उन्ही की भांति मुंहतोड़ जवाब देता रहेगा।