भारत-चीन सीमा से लगातार परेशान करने वाली खबरें आ रही हैं। भले ही सरकार की तरफ से कहा जा रहा हो कि बातचीत के जरिए विवाद का हल निकाला जा रहा है और सकारात्मक बातचीत हो रही है, लेकिन असल तस्वीरें इन दावों से इतर है। चीन दो कदम आगे आता है और एक कदम पीछे हटता है। विवादित जगह पर अपने टेंट लगाता है और भारत की पेट्रोलिंग पार्टी को रोकता है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह है कि भारत सरकार चीन की तरफ से एक के बाद एक पूर्व समझौतों के उल्लंघन के बावजूद उस तरह की आक्रामकता नहीं दिखा पा रही है, जिस तरह की 2014 के पहले देखने को मिला करती थी ? जहां तक सैन्य ताकत का सवाल है, भारत की सेना दुनिया की श्रेष्ठतम सेनाओं में से एक है। सामरिक दृष्टि से भारत की तैयारी दुनिया के तमाम शक्तिशाली देशों के बराबर की है। बावजूद इसके भारत की तरफ से रक्षात्मक रुख के पीछे क्या व्यवसायिक और वाणिज्यिक दबाव है ?
ये सर्वविदित है कि भारत की निर्भरता चीन से आयातित वस्तुओं पर ज़्यादा है। हम अपनी जरूरत की कई चीजों का करीब 80% इंपोर्ट करते है। इलेक्ट्रिक मशीनरी और इक्विपमेंट, रिएक्टर्स, बॉयलर्स मशीनरी, मेकैनिकल अप्लायंसेज, आर्गेनिक केमिकल्स, दवाइयां, प्लास्टिक, इलेक्ट्रॉनिक्स यहाँ तक की खाद भी चीन से इंपोर्ट करते है। हम चीन को अपना सामान बेचते भी है। भारत चीन को कॉटन, कॉपर, हीरा और दूसरे प्राकृतिक रत्न, आईटी सेवाएं और इंजीनियरिंग सेवाएं देता हैं। ना सिर्फ व्यापार ब्लकि हमारे देश में स्टार्टअप बिजनेस में चीन का निवेश 3.9 बिलियन डॉलर का है। वहीं चीन का दावा है कि दिसंबर, 2019 तक उसने भारत में 8 बिलियन डॉलर का निवेश किया। अगर चीन के अलग-अलग स्रोतों से भारत में कुल निवेश जोड़ें तो ये करीब 26 बिलियन डॉलर का है, जो की कई भारतीय स्टार्टअप में पैसा लगाता है, जिसमें पेटीएम, ओला, ओयो रूम्स, स्नैपडील, BYJU’S जैसी कंपनियां शमिल है।
जानकारों का मानना है कि अगर चीन से हमारे संबंध बिगड़ते हैं तो उसका सीधा असर भारतीय बाज़ार और भारतीय कंपनियों पर भी पड़ेगा। सांकेतिक तौर पर भले ही हम चीन से इंपोर्ट घटाने और घरेलू मांग की आपूर्ति अपने ही देश में पैदा करके पूरी करने कि बातें कर रहे हैं, लेकिन सच्चाई इससे मीलों दूर है। पिछले कुछ वर्षों में हमारी स्थिति एक मैन्युफैक्चरिंग नेशन के बजाय एक ट्रेडर की रही है। हमारे देश की ज़्यादातर कंपनियों ने इंडिया में मैन्युफैक्चरिंग करने के बजाए चाइनीज़ प्रोडक्ट्स को इंपोर्ट करके उसकी ट्रेडिंग की है और इससे बेतहाशा मुनाफा कमाया है।
वाणिज्यिक और व्यावसायिक दबाव के कारण ही हम शायद हम चीन के साथ लाल लाल आंखें करके अपनी बात कहने में थोड़े रक्षात्मक दिखाई दे रहे हैं। 1962 से चीन की रणनीति हमेशा से दगाबाजी और वादाखिलाफी की रही है। लेकिन 1962 की घटना के बाद से भारत की सरकारों ने चीन की इस दगाबाजी के कदम का बहादुरी से जवाब दिया था। कई बार चीन को शिकस्त भी दी। इंदिरा गांधी ने दो बार और राजीव गांधी ने एक बार कूटनीतिक और सामरिक तौर पर सबक सिखाया था।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों से चीन अपने पुराने रास्ते पर चल पड़ा है। उसकी रणनीति एक तरफ दोस्ती का नाटक करके और कूटनीतिक वार्ताएं करके भारत को उलझाए रखने की और दूसरी तरफ LAC पर घुसपैठ जारी रखने की रही है। भारत सरकार ने खुद माना है कि बीते कुछ महीनों में चीन की तरफ से 170 बार घुसपैठ की कोशिश हुई है। चीन की नीयत को समझने के लिए हाल ही में लद्दाख में हुई घटनाओं पर नजर डालना ज़रूरी है। एक तरफ भारत और चीन के सैन्य अधिकारियों में बातचीत चल रही थी दूसरी तरफ चीन की सेना का जमावड़ा बढ़ रहा था, जिसकी वजह से 20 भारतीय जवानों की शहादत हुए और कुछ अगवा करके छोड़े गए। भारत सरकार को व्यावसायिक और वाणिज्यिक हितों से ज़्यादा देश की रक्षा और संप्रभुता पर ध्यान देना चाहिए। और चीन के साथ चल रही वार्ताओं पर भरोसा करने से ज़्यादा अपने हितों के बारे में सोचना चाहिए।