
“मैं भारत का संविधान हूं।” यानि वो बुनियाद जिस पर भारत के जनतंत्र की समूची इमारत पुरजोर बुलंदी के साथ खड़ी है। जिसमें हमारे आधुनिक गणतंत्र के व्यापक और समावेशी विचारों को तवज्जो दी गई। यानि वो आचार संहिता, जिसका निर्माण भारत की राजनीतिक और सामाजिक मुक्ति के सबसे बड़े संघर्ष में शामिल रहीं उस वक्त की अजीम शख्सियतों ने किया। कुछ ऐसा गौरवशाली रहा है मेरा इतिहास। लेकिन आज मैं आहत हूं, शायद थोड़ा सा निराश भी, क्योंकि आज संविधान के नाम पर नाम पर हर कोई मेरा महिमामंडन तो कर देता है लेकिन फिर संविधान संशोधन के नाम पर एक बार फिर मेरी मूल भावना और आत्मा छलनी की जाती है। और ये सब होता है सिर्फ संविधान के नाम पर।
ये वही संविधान है, जिससे भारतीय गणतंत्र को ताकत मिलती है, लेकिन आज वो खुद को सबसे ज्यादा कमजोर महसूस कर रहा है, क्य़ोंकि संविधान के जानकार भी मानते हैं कि अगर ऐसे ही संविधान संशोधन होते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब भारतीय संविधान की मूल अवधारणा ही खत्म हो जाएगी। देश की मौजूदा सियासत का सबसे गर्म मुद्दा है संविधान। हर कोई संविधान का समर्थक है, उसकी नीतियों का सबसे बड़ा झंडाबरदार, लेकिन हकीकत ये है कि इतने समर्थकों के बीच भी संविधान शायद आज खुद को सबसे ज्य़ादा ठगा सा महसूस कर रहा है। खासकर तब जबकि हर किसी के पास संविधान बचाने की दलील है, लेकिन कोई ये भी बताए कि आखिर कोई संविधान को बचा रहा है तो आखिर किससे?
इसका जवाब शायद ही किसी के पास हो, क्योंकि आज जो लोग संविधान के सबसे बड़े रक्षक के तौर पर खुद को आगे रखने की कोशिशों में हैं वो सत्ता में आए ही थे संविधान बदलने। जी हां, केन्द्रीय मंत्री अनंत हेगड़े का वो विवादित बयान तो याद ही होगा, जिसमें उन्होने कहा था कि वो (मतलब उनकी पार्टी) संविधान बदलने के इरादे से सत्ता में आए हैं। लेकिन दिलचस्प ये रहा कि उनकी इस टिप्पणी पर सत्ताधारी पार्टी ने मौन ओढ़ लिया।

दूसरी बार मुल्क की बागडोर संभालते वक्त संविधान को सबसे पवित्र किताब कहने वाले तथा अपने आप को संविधान निर्माता अंबेडकर का शिष्य घोषित करने वाले प्रधानमंत्री आज विपक्ष के हमलों को संविधान विरोधी कहते नहीं थक रहे तो वहीं विपक्षी उन्हें संविधान से छेड़छाड के गंभीर आरोपों में घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे।

कभी पीएम संविधान को नमन कर पारी का आगाज करते हैं तो वहीं विपक्षी मुखिया भी संविधान को सरकार विरोधी अभियान में अपनी हथियार बना लेती हैं। हर कोई संविधान को अपनी ताकत बता रहा है, लेकिन इस नूराकुश्ती में जो संविधान कमजोर हो रहा है उसकी सुध कौन लेगा और कब लेगा ? जाहिर है कि अब अंबेडकर तो लौट पर नहीं आएंगे, फिर दूसरा अंबेडकर कौन है ?
वैसे प्रतीकात्मक अंबेडकर तो शायद आज का हर सियासतदां है तो अपनी सुविधा से संविधान की परिभाषा गढ़ रहा है और दूसरों पर मढ़ भी रहा है। हाल ही में जिस वजह से संविधान पर रार मची है वो है नागरिकता का कानून, जिसे संविधान का 104वां संशोधन बताया जा रहा है। विपक्ष कहता है कि संविधान में हुआ ये संशोधन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 5, 10, 14 और 15 की मूल भावना का उल्लंघन करता है तो सरकार की दलील है कि ये संशोधन देशहित में जरूरी है। अब किसकी दलील सुनें और किसकी मानें ? क्योंकि सत्ता भी संविधान की दुहाई दे रही है और विपक्ष भी उनका विरोध उसी संविधान को हाथ में लेकर कर रहा है।
केरल की सरकार भी विरोध में है और एक विधेयक के जरिए केन्द्र के कानून को ये कह कर मानने से मना कर देती है कि ये संविधान सम्मत नहीं। फिर राज्यपाल समाने आए और बोले कि केरल सरकार का ये फैसला संविधान के मुताबिक नहीं। अरे ये क्या ? हर किसी का अपना संविधान और अपनी सुविधा मुताबिक उसकी परिभाषा।

कोई भी महीना ऐसा नहीं गुजरता जब हम ऐसे बयानों से रूबरू न होते हों जब संविधान बचाने के नाम पर सियासी वार पलटवार न होता हो, लेकिन फिर भी देश का दुर्भाग्य ये है कि भले ही संविधान का इस्तेमाल एक दूसरे पर सियासी हमले में हो रहा हो लेकिन आखिर में छलनी सिर्फ और सिर्फ संविधान ही होता रहा है।
संविधान की तय धाराओं और मूलभावना में बदलाव कर उसे खारिज करने का ये सिलसिला यूं तो नया नहीं। 1949 में लागू होने के महज 2 साल बाद ही पहला संविधान संशोधन करना पड़ा और फिर तो जैसे सिलसिला सा चल पड़ा। बीते 70 सालों के दौरान हर सरकार अपनी सियासी सुविधा के मुताबिक करीब 104 संशोधन कर संविधान के स्वरूप को ही बदल चुकी हैं, लेकिन फिर भी विडम्बना देखिए, हर बार एक ही दावा, जो किया वो सब संविधान के नाम पर
– वासिन्द्र मिश्र