कोरोना वायरस की महामारी हर बीतते दिन के साथ एक नई चुनौती पेश कर रही है। ऐसे में इससे बचाव के उपायों के इतर कुछ भी सोचना लगभग बेमानी सा ही लगता है और उसमें भी जश्न और चुनावी रण की तैयारी। शायद ये उन प्रवासी मजदूरों के दर्द, कोरोना वॉरियर्स के त्याग, घरों में कैद करोड़ों लोगों की भावनाओं पर किसी कुठाराघात से कम नहीं, लेकिन सियासत की राह ऐसी ही होती है, जो हर चीज को सिर्फ नफे-नुकसान की ही कसौटी पर कसती है।
अब देख लीजिए, सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला साल भी कोरोना संकट के बीच ही पूरा हो गया, सो सत्तारुढ़ पार्टी ने सालगिरह मनाने की पूरी तैयारी कर ली है कहने को तो वो इसे अभियान का नाम दे रही है, लेकिन महामारी के दौर में रोजी-रोटी के संकट से बेहाल जनता को 750 वर्चुअल रैलियों, 1000 वर्चुअल सम्मेलनों और 10 करोड़ लोगों के घर पीएम का संदेश पहुंचाने से क्या और कितनी राहत मिलेगी ये तो शासन और प्रशासन ही समझ सकता है। जब चार चार लॉकडाउन के बावजूद कोरोना की बढ़ती रफ्तार के बीच सरकार की उपलब्धियां गिनाने का औचित्य फिलहाल समझ से परे है, लेकिन सियासत के लिहाज से देखें तो तस्वीर थोड़ी साफ नज़र आती है। कोरोना काल चल रहा है लेकिन ये कैसे नकार दें कि चुनावी साल भी है।
कोरोना संक्रमण के चलते लॉकडाउन में भले ही सब कुछ बंद हो लेकिन सियासत के लिए संभावनाओं के तमाम दरवाजे खुले हैं। मुश्किल वक्त में भी पार्टियों खासकर बीजेपी की तमाम चुनावी गतिविधियां चालू हैं। बिहार में ही देखिए प्रवासी मजदूरों पर सियासी उफान के बीच बीजेपी विधानसभा चुनाव की तैयारियों में पूरी तरह से जुटी है। कहने को बिहार में पार्टी गठबंधन में है, लेकिन लगता है इस बार कुछ और ही चल रहा है बीजेपी के मन में। तभी तो नीतीश के विरोध के बावजूद बीजेपी मजदूरों को घर तक पहुंचाने में जुटी है क्योंकि आने वाले चुनाव में ये मुद्दा सब पर भारी पड़ने वाला है। हालांकि पहले भी कई मुद्दों पर सत्ताधारी गठबंधन में आपसी तकरार के तमाम मौके दिखे, लेकिन बीजेपी के मौजूदा तेवर किसी नई रणनीति की तरफ इशारा कर रहे हैं। कहीं एकला चलो का संकेत तो नहीं। पार्टी संगठन इन दोनों चुनावी चालों को सही दिशा देने के लिए तमाम पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं से लगातार संपर्क में है। बिहार में विधानसभा चुनाव अक्टूबर-नवंबर में होना है। राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने इसी 20 मई को बिहार के वरिष्ठ नेताओं के साथ बैठक कर पार्टी की मंशा जाहिर कर दी है। “हर बूथ मजबूत” के सिद्धांत पर काम करते हुए पहले ही 62 हजार बूथ प्रमुखों की नियुक्ति हो चुकी है, हालांकि इन तैयारियों पर सवाल भी हैं कि कैसे बीजेपी ने चुनाव की बात करके अपने स्वार्थ को सामने किया है, तो क्या बीजेपी ने महामारी के दौर में भी चुनाव जीतने को अपनी प्राथमिकता बना दिया है ? खैर पब्लिक भी सब जानती है और वक्त आने पर सही सबक भी सिखाती है।
चुनावी खेल की कुछ ऐसी स्क्रिप्ट बिहार के पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल में भी लिखी जा रही है। यूं तो सूबे में विधानसभा चुनाव 2021 में होने हैं लेकिन कोरोना की बिसात पर बीजेपी और टीएमसी के बीच शह मात का खेल पूरे चरम पर है, तभी तो ममता बनर्जी और केन्द्र के बीच टकराव बढ़ता ही जा रहा है, जिसकी कीमत बंगाल की जनता चुका रही है। कोरोना जांच में गड़बड़ी, लॉकडाउन का पालन नहीं करने और प्रवासी श्रमिकों की वापसी के मुद्दे पर आपसी मतभेद और टकराव के बाद अब विमान सेवा को लेकर भी पश्चिम बंगाल सरकार और केंद्र सरकार आमने-सामने हैं। एक-दूसरे को नीचा दिखाकर दोषी ठहराने और क्रेडिट लेने की होड़ साफ दिख रही है। कभी अमित शाह की तल्ख चिट्ठियां तो कभी ममता के तीखे आरोप। फिर राज्यपाल जगदीप धनखड़ और राज्य सरकार के बीच तकरार चलती ही रहती है। लॉकडाउन के दौर में ही बंगाल को तूफान का सामना करना पड़ा और दिलचस्प ये रहा कि लॉकडाउन के दौरान पहली बार बाहर भी निकले तो पश्चिम बंगाल के लिए। ममता लगातार ये आऱोप लगाती रहीं कि केन्द्र ने कोरोना संकट में आर्थिक मदद नहीं की, तो पीएम भी “तूफानी” मदद के नाम पर 1000 करोड़ का पैकेज दे आए। खुद जनता भी समझ रही है कि बंगाल में सब चुनावी है
मध्यप्रदेश को ही लीजिए, लॉकडाउन के दौरान सबसे ज्यादा सियासी ड्रामा अगर दिखा तो देश के दिल में बसे मध्यप्रदेश में। लॉकडाउन में सरकार गिर गई, नई सरकार भी बन गई, मंत्रिमंडल भी बन गया और अब विस्तार के साथ साथ उपचुनाव की भी तैयारी। आखिर ये क्या हो रहा है मध्यप्रदेश में ? वो भी तब जब प्रदेश में कोरोना के प्रकोप ने पूरे देश को हिला के रख दिया, लेकिन इससे बेखबर शिवराज सरकार का पूरा फोकस उपचुनाव जीतकर खुद को मजबूत करने पर है। क्योंकि अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो सरकार संकट में फंस सकती है। हालांकि ये राह भी आसान नहीं क्योंकि चुनावी जंग में बीजेपी को सबसे बड़ा खतरा भीतरघात का है। असल लड़ाई कांग्रेस से नहीं है बल्कि के अंदर पुराने नेताओं और कांग्रेस से आए नेताओं के बीच है, जिसमें उलझी बीजेपी कोरोना के खत्म होने का भी इंतज़ार नहीं करना चाहती औऱ जल्द चुनाव की तैयारियों में जुटी है। फिर चाहे जनता को ही क्यों न इसकी कीमत चुकानी पड़े।
लेकिन उससे भी बड़ा सवाल ये कि जिस विकास मॉडल ने देश दुनिया में नाम कमाया वो कोरोना की मुश्किल घड़ी में ऐसे भरभरा के क्यों गिर गया ? जी हां बात हो रही है गुजरात मॉडल की, जिसने नरेन्द्र मोदी के दौर में खूब सुर्खियां बटोरीं लेकिन विजय रुपाणी का दौर आते आते विकास के दावे हवा हो गए। मोदी के केन्द्रीय सियासत में आने के बाद गुजरात में सरकार भले ही बीजेपी की रही लेकिन मुख्यमंत्रियों का कामकाज लोगों के मन में जगह नहीं बना पाया और अब कोरोना संकट के बीच कई मोर्चों पर सरकार की नाकामी। उसपर मुनाफाखोरी और भ्रष्टाचार के मामलों और गुजरात हाईकोर्ट की तल्ख टिप्पणी ने सरकार की छवि को रसातल में पहुंचा दिया। राजकोट के मेयर के पद से सीएम की कुर्सी तक पहुंचे विजय रूपाणी कोरोना काल में अस्पतालों के टेकओवर में बंदरबांट को रोक पाए, न ही वेंटिलेटर की गुणवत्ता को लेकर उठे सवालों पर सही कदम उठा पाए, जाहिर है जिससे जनता में गलत संदेश गया। और बीजेपी की मुश्किल ये है कि ये सबकुछ हो रहा है चुनावी मौसम में। निकायचुनाव की तैयारियों में लगी बीजेपी के लिए इस माहौल में जीत की रणनीति बनाना टेढ़ी खीर साबित हो रहा है और अगर हार मिली तो ये गुजरात सरकार से कहीं ज्यादा केन्द्र सरकार के लिए नाक का सवाल होगा। लिहाजा बीजेपी का फोकस राज्य की मौजूदा खस्ताहालत की बजाय चुनावी जीत पर है।
ये तो महज चंद उदाहरण भर हैं कि कैसे महामारी की मुसीबत पर भारी है वोटों की सियासत। कोरोना के मारे लोग न केवल मोहरा बन रहे हैं बल्कि इसकी भारी कीमत भी चुका रहे हैं, लेकिन इन पर सियासत करने वाले शायद भूल गए हैं कि यही मोहरे सियासत की बिसात पर जिताने का माद्दा रखते हैं तो हराकर जमीन पर पटकने की कुव्वत भी इन्हीं में है।
किसको डालूं वोट रामजी…
सब में ही है खोट रामजी।
लोकतंत्र की मर्यादा पर…
करते कैसी चोट रामजी ?
किसको डालूं वोट रामजी…
– वासिन्द्र मिश्र