आज विश्व मज़दूर दिवस है। इस बार का नज़ारा न केवल बेहद जुदा है बल्कि वो इतिहास बनने वाला है, जिसकी मिसाल शायद ही दोबारा मिले, क्योंकि मौजूदा कोरोना काल में देश –दुनिया के मजदूर सुर्खियों में हैं। हालांकि वजह वही पुरानी है, उनकी दुर्दशा, भूख, मजबूरी और पलायन ने फिर मजदूरों को हलकान किया है। आखिर क्यों नहीं बदल पा रही है मजदूरों की किस्मत ? क्यों अलग-अलग देशों की परिस्थितियों के बीच, पूरी दुनिया में तमाम तरह की सरकारों के राज में मजदूरों की हालत आज भी वैसी है कि उनपर तरस खाए बिना रहा भी नहीं जाता ?
आपको याद होगा कि एक वक्त पर कार्ल मार्क्स ने मजदूरों को अपनी चेतना जगाने के लिए प्रेरित किया था और नारा दिया था कि ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो।’ मार्क्स कहा करते थे कि मजदूरों के पास खोने को सिर्फ बेड़ियां है और जीतने को सारी दुनिया। हालांकि उनकी ये सोच धरातल पर उतरने में कामयाब नहीं हो पाई और हालत ये है कि आज भी दुनिया का उन्मुक्त पूंजीवाद सस्ते श्रम के शोषण का हर दिन नया इतिहास रचने में जुटा है।
दिलचस्प ये है कि आज भी हमारे देश समेत दुनिया भर में विश्व मजदूर दिवस के कार्यक्रम हुए, लेकिन क्या ये मजदूरों की मजबूरी को खत्म करने के लिए काफी है ? वैसे तो ये दिन श्रम को पूंजी की सत्ता से मुक्ति दिलाने, उसकी गरिमा को फिर से स्थापित करने और शोषण के खिलाफ संघर्ष की चेतना जगाने का है। लेकिन क्या सही मायनों में ऐसा कुछ हो पा रहा है ? कम से कम भारत में ऐसा होता तो नहीं दिख रहा है, खासकर मौजूदा कोरोना काल में। महामारी की आड़ में मजदूरों की भूख, नौकरियों का संकट, वेतन की अनिश्चितता जैसी तमाम मुश्किलें एक नई आर्थिक महामारी की शक्ल ले रही है, लेकिन सरकारों के पास थोड़ा सा ठहर कर इसके बारे में सोचने तक का वक्त शायद नहीं है। दौर कोई भी हो मजदूर विरोधी गतिविधियां रुकने की बजाय नई रफ्तार ही पकड़ती नज़र आ रही है।
इतिहास गवाह है कि 90 के दशक से ही हमारे देश में एंटी वर्कर पॉलिसी आकार लेने लगी थी। कभी विकास के नाम पर तो कभी उदारीकरण की आड़ में, मजदूरों पर अत्याचार बढ़ा। उनके शोषण के नए नए रास्ते तैयार किए गए और जब कुछ और नहीं हो पाया तो मशीनीकरण की आड़ में मजदूरों को हटाने का दौर चल पड़ा, जो आज तक थम नहीं पाया। और अब कोरोना ने पूंजीवादी ताकतों को नया हथियार दे दिया। आज हालत ये है कि पूरी दुनिया में पूंजीवाद के पैरों तले मजदूरों – कामगारों का शोषण बदस्तूर जारी है।
विश्वव्यापी नियो कैपिटल व्यवस्था के आधारस्तम्भ माने जाने वाले वर्ल्ड बैंक,अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष व विश्व व्यापार संगठन के बढ़ते दबावों के बीच तमाम पिछड़े देशों की लोकतांत्रिक सरकारें जिनमें भारत भी शामिल है वो उदारीकरण की राह बेहद तेज़ चाल से आगे बढ़ रही हैं और मुनाफाखोर कंपनियों को फायदा देने के लिए कोई भी फैसला लेने से गुरेज करती नज़र नहीं आ रही है। मजदूर इस मुश्किल वक्त में जहां तहां फंसे हैं और रोटी रोटी के लिए मोहताज हैं। नौकरियां तेजी से खत्म हो रही है। जो बचाने में कामयाब हैं वो कटौती और दूसरी समस्याओं से बेहाल है। तो वही सरकार का पूरा फोकस आज भी पूंजीवाद को बढ़ावा देने पर लगा है, फिर चाहे वो अर्थव्यवस्था की कीमत पर ही क्यों हो।
सच्चाई ये है कि पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की इसी एकजुटता ने ये हालात पैदा कर दिए हैं कि मजदूरों के पुराने कौशल बेकार हो गये। अब न तो वो श्रमिक रहे और न ही वो श्रमिक। मौजूदा दौर गवाह है कि कैसे सरकारें अपने मेहनतकश नागरिकों की अनदेखी करके आर्थिक सुधारों के नाम पर श्रमिक हितों के बंटाधार में जुटी है। पूंजीपतियों के लिए अंधाधुंध सहूलियतों वाली आर्थिक नीतियों को बनाने में ही पूरी ऊर्जा खर्च कर रही है। ऐसे में ये सवाल खड़ा होता है कि इन परिस्थितियों में मजदूर दिवस मनाने का कोई औचित्य बचा है क्या ?
– वासिन्द्र मिश्र