आज विश्व स्वास्थ्य दिवस है और दिलचस्प ये है कि इस वक्त दुनिया शायद अब तक की सबसे बड़ी हेल्थ इमरजेंसी में पूरी तरह फंसी नज़र आ रही है। हालत ये है कि कोरोना कहर की इस आपदा के भंवर में सिर्फ हमारा देश या फिर तमाम दूसरे छोटे देश ही नहीं उलझे हैं, बल्कि तमाम सुविधाओं से संपन्न और हाईटेक चीन से शुरु हुई इस मुसीबत से आज अगर सबसे ज्यादा कोई परेशान है तो वो है खुद को सुपरपावर कह कर इतराने वाला अमेरिका। अपनी रक्षा ताकत के दम पर दुनिया के हर मसले में अपनी टांग अड़ाने वाला अमेरिका आज मेडिकल सुविधाओं की कमी से ऐसा जूझ रहा है कि मलेरिया की टैबलेट तक के लिए वो दूसरे देशों का मुंह ताकने को मजबूर है।
ये हाल सिर्फ अमेरिका का नहीं बल्कि कई दूसरे ताकतवर यूरोपीय देशों का है, जिन्होने अपनी GDP के एक बड़े हिस्से को रक्षा के साजो-सामान जुटाने में झोंक दिया और आज कोरोना संकट की इस घड़ी में न तो वो हाईटेक मिसाइलें काम आ रही हैं और न ही टैंक, गोला-बारूद कोरोना के वायरस को मार पा रहे हैं। इस विध्वंसक जुटान के लिए उन सभी सेक्टर्स की अनदेखी हुई, जो देश की जनता के हित की थी। मसलन शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, इंफ्रास्ट्रक्चर आदि आदि। और इस काल में हेल्थ सेक्टर की यही अनदेखी दुनियाभर में हज़ारों मौतों का कारण बन गई। अब तमाम असरदार हुक्मरानों की सरकारें चेती है, लेकिन शायद देर हो चुकी है। अमेरिका, इटली, स्पेन और चीन जैसे देश भी अपने नागरिकों को बेमौत मरते देखने को मजबूर हैं। लाखों बेरोजगारों की फौज’ भी पूछ रही है कि उनका क्या कसूर?
हालात तो हमारे देश में भी कमोबेस वैसे ही हैं। मेडिकल संसाधनों की कमी से बेहाल डॉक्टर्स और नर्स फिर भी अपनी ड्यूटी पर जुटे हैं। न तो उन्हें सही टेस्ट किट मिल पा रही है और न ही अपनी रक्षा के लिए PPE ही मिल पा रहे। अब सरकारी कोशिशों ने ज़ोर पकड़ा है, लेकिन कितनी राहत मिल पाएगी ? ये कहना मुश्किल है। आखिर कितना वाजिब है तबाही के हथियारों पर GDP के बड़े हिस्से को खर्च करना?
क्या ये जरूरी नहीं है कि जनता के हित से जुड़े मसलों पर बात हो, उनकी बेहतरी पर ध्यान दिया जाए। अब मुश्किल में फंसने के बाद दुनिया की तमाम सरकारें अपने नजरिए में बदलाव की कोशिश में जुटी हैं। ये तो वही हो गया कि अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। खैर गनीमत है कि सरकारों के रवैये में बदलाव का आगाज़ तो हुआ। देर आए दुरुस्त आए।
आज के इस मौजूदा दौर में जिस मुश्किल में दुनिया फंसी है, उसमें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत की कमी बेहद खल रही है कि कैसे उन्होने अहिंसा के रास्ते पर चलकर मानव जाति के कल्याण का सिद्धांत दिया था, जो इस वक्त खासा प्रासंगिक है।
दुनिया को Nation First का नारा देकर काबिज हुए कई देशों के हुक्मरान सत्ता में तो आ गए लेकिन फिर वो भूल गए कि एक मजबूत राष्ट्र अपने नागरिकों की बदौलत ही मजबूत बनता है और जब नागरिक ही सुरक्षित नहीं तो फिर कैसी मजबूती और कैसा एम्पावर्ड स्टेट ? जहां अपने नागरिक ही सत्ता पर भरोसा न रह जाए।
गांधी जी ने भी हमेशा अच्छे इंसान बनने की वकालत की, क्योंकि उससे ही अच्छे समाज का निर्माण होगा औऱ आगे जाकर वो ही अच्छे राष्ट्र में भागीदार बनते हैं लेकिन मौजूदा दौर में ये भावना विकास और होड़ की अंधी दौड़ में खो गई है, जिसका नतीजा आज संपूर्ण विश्व भुगत रहा है। इतिहास गवाह है कि युद्ध और विध्वंसक ताकत के बल पर हम न तो देश को सुरक्षित रख सकते हैं, न ही समाज को।
फिर चाहे वो अशोक जैसे चक्रवर्ती सम्राट हों या फिर अकबर जैसे बादशाह या फिर आधुनिक दौर के कामयाब नेता, उन्होने कभी हथियारों के बल पर शासन नहीं किया, बल्कि उनका फोकस नागरिकों के कल्याण और विकास पर रहा। कोरोना के इस विपत्तिकाल ने हमें एक बार फिर मौका दिया है, ठहर कर चिंतन का, आत्ममंथन का,पूर्वाग्रहों को छोड़ने का। प्राकृतिक आपदा के इस दौर ने पूरी दुनिया को ये स्वर्णिम अवसर दिया है कि वो ज़रा ठहरे, सोचे और आगे की राह तय करे और जनहित को सर्वोपरि करे। इसी में जगत का कल्याण है। बाकी तो आपको पता ही है कि सब मोहमाया है।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥
-वासिन्द्र मिश्र