नई दिल्ली: Premchand Jayanti: मुंशी प्रेमचंद को हिन्दी साहित्य में कहानियों का सम्राट माना जाता है। प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को बनारस के लमही में गांव में हुआ था। एक नज़र में लग सकता है कि आठ दशक पहले जो शख़्स इस दुनिया से जा चुका है उसे याद करना महज़ एक रस्म अदायगी ही है। लेकिन कहा जाता है कि किसी भी लेखक का लेखन जब समाज की गरीबी, शोषण, अन्याय और उत्पीड़न का लिखित दस्तावेज बन जाए तो वह लेखक अमर हो जाता है।
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Premchand Jayanti: मुंशी प्रेमचंद की शिक्षा
प्रेमचंद जी की प्रारम्भिक शिक्षा सात साल की उम्र से अपने ही गाँव लमही के एक छोटे से मदरसा से शुरू हुई थी। मदरसा मे रह कर उन्होंने हिन्दी के साथ उर्दू व थोडा बहुत अंग्रेजी भाषा का भी ज्ञान प्राप्त किया। ऐसे करते हुए धीरे-धीरे स्वयं के बल-बूते पर उन्होंने अपनी शिक्षा को आगे बढाया और आगे स्नातक की पढ़ाई के लिये बनारस के एक कालेज मे दाखिला लिया। पैसो की तंगी के चलते अपनी पढ़ाई बीच मे ही छोड़नी पड़ी। बड़ी कठिनाईयों से जैसे-तैसे मैट्रिक पास की थी परन्तु उन्होंने जीवन के किसी पढ़ाव पर हार नही मानी और 1919 मे फिर से अध्ययन कर बी.ए की डिग्री प्राप्त की।
(Premchand Jayanti) मुंशी प्रेमचंद का विवाह
प्रेमचंद के पिता ने काफी कम उम्र में उनकी शादी करवा दी थी। उनका विवाह 15 साल की उम्र में करवा दिया गया था। प्रेमचंद जी का यह विवाह उनकी मर्जी के बिना हुआ था। प्रेमचंद की शादी के लगभग एक साल बाद ही उनके पिता का देहांत हो गया इसके बाद अचानक उनके सिर पर पूरे घर की जिम्मेदारी आ गई। खर्च चलाने के लिए उन्हें अपनी पुस्तकें भी बेचना पढ़ी थी।
(Premchand Jayanti) यथार्थ का चित्रण
आज़ादी के पहले भारत की हक़ीक़त का जैसा चित्रण प्रेमचंद ने किया वैसा किसी अन्य लेखक के साहित्य में नहीं मिलता है।औपनिवेशिक शासन के प्रभाव स्वरूप भारत के ग्रामीण जीवन में जो बदलाव आए उसका प्रेमचंद ने आम लोगों की भाषा में गोदान, गबन, निर्मला, कर्मभूमि, सेवासदन, कायाकल्प, प्रतिज्ञा जैसे उपन्यासों और कफ़न, पूस की रात, नमक का दारोगा, बड़े घर की बेटी, घासवाली, ईदगाह जैसी कई कहानियों में यथार्थ चित्रण किया।
कालजयी साहित्य
प्रेमचंद के समय में और उसके बाद जैनेंद्र, अज्ञेय, फणीश्वरनाथ रेणु, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, यशपाल जैसे हिंदी के कई बड़े लेखक हुए लेकिन लोकप्रियता और प्रभाव दोनों ही मानदंडों पर प्रेमचंद के क़द के क़रीब कोई नहीं पहुंच सका। प्रेमचंद के दौर से ज्यादा समस्याएं जटिल और व्यापक रूप में मौजूद हैं लेकिन लेखक उन्हें शब्दों में उतार नहीं पा रहे। इसका सीधा मतलब है कि लेखक का पहले जैसा गहरा रिश्ता समाज से नहीं रहा है।
प्रेमचंद राष्ट्रवाद को एक कोढ़ मानते थे
राष्ट्रवाद पर आज खूब चर्चा होती है हर कोई इसकी परिभाषा अपने हिसाब से तय करता है लेकिन प्रेमचंद का मानना था कि जैसे मध्यकालीन समाज का कोढ़ सांप्रदायिकता थी वैसे ही वर्तमान समय का कोढ़ राष्ट्रवाद है। उनका मानना था कि जैसे सांप्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर राज्य स्थापित कर देना चाहती थी और उसे उस बनाए घेरे से बाहर की चीजों को मिटाने में ज़रा भी संकोच नहीं होता था ठीक उसी तरह राष्ट्रीयता भी है जो अपने परिमित क्षेत्र के अंदर रामराज्य का आयोजन करती है।
संस्कृति और धर्म
संस्कृति को धर्म से घालमेल करने की राजनीति पुरानी रही है. वे बहुत ही साफ़ तौर पर कहते हैं, ‘संस्कृति का धर्म से कोई सम्बंध नहीं. आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है लेकिन ईसाई संस्कृति और मुसलिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है।
फ़िल्मी दुनिया का सफ़र
धन और परिवार का पालन पोषण करने के लिए प्रेमचंद अपनी क़िस्मत आजमाने 1934 में माया नगरी मुंबई पहुंचे थे। अजंता कंपनी में कहानी लेखक की नौकरी भी की, लेकिन साल भर का अनुबंध पूरा करने से पहले ही वापस घर लौट आए। हालांकि प्रेमचंद की कहानियों, उनके उपन्यासों पर कई फ़िल्में बनीं, लेकिन जनता ने उनके साथ न्याय नहीं किया। प्रेमचंद के उपन्यास या कहानी पर बनी अगर किसी फ़िल्म ने सफलता का मुंह देखा तो वो थी 1977 में बनीं “शतरंज के खिलाड़ी” इस फ़िल्म को तीन फ़िल्म फेयर अवार्ड मिले इस फ़िल्म की कहानी अवध के नवाब वाजिद अली शाह के दो अमीरों के ईद गिर्द घूमती है।
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