नई दिल्ली : यूं तो देव वाणी संस्कृत को भाषाओं की जननी कहा जाता है, लेकिन अपने गौरवशाली इतिहास के बावजूद वर्तमान में संस्कृत अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही है। जी हां, संस्कृत भाषा में रचित जिन वेद पुराणों और उपनिषदों पर आज विश्व में बड़े बड़े अध्यन और शोध कार्य किए जा रहे हैं, वहीं दूसरी और भारत की देव वाणी अपने की देश में वजूद के लिए संघर्ष करती दिखाई दे रही है।
खतरे में ‘संस्कृत’ का अस्तित्व
देव-भाषा और प्राचीन सभ्यता की प्रतीक संस्कृत विलुप्त होने की कगार पर है, संस्कृत भाषाओं की जननी है, लेकिन आज ये भाषा अपने ही देश में उपेक्षित है। देश में संस्कृत विद्यालय और विश्व विद्यालय अपने अस्तित्व की जंग लड़ रहे हैं। बच्चों के पाठ्यक्रम में भी संस्कृत की जगह अंग्रेजी को प्रमुखता दी जा रही है। विदेश की भाषाओं की होड़ में हम अपनी प्राचीन विरासत को खोते जा रहे हैं।
भारत की प्रतिष्ठा कही जाने वाली भाषा संस्कृत भारत में ही अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही है और इसका जीता जागता उदाहरण संस्कृत भाषा में प्रकाशित होने वाला सुधर्मा अखबार है। कर्नाटक के मैसूर से प्रकाशित होने वाला सुधर्मा अखबार दुनिया में एकमात्र संस्कृत भाषा का अखबार है, लेकिन इसकी पठनियता देश में ना के बराबर है और हालात यह है कि यह अखबार बंद होने के कगार पर आ गया है।
अपने अस्तित्व की जंग लड़ रहा देश का पहला और एकमात्र संस्कृत अख़बार
1970 से कर्नाटक के मैसूर से प्रकाशित हो रहा ये अखबार संस्कृत के महान विद्वान कलाले नांदुर वरदराज आयंगर ने शुरू किया था। एक पेज के इस अखबार को केरल, असम, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडू के पुस्तकालयों में जगह मिलती है। अखबार ज्यादातर योग, वेद, संस्कृति और राजनीति की खबरें छापता है। सुधर्मा का ई-पेपर भी है जिसे करीब डेढ़ लाख लोग पढ़ते हैं।
कर्नाटक से प्रकाशित इस संस्कृत अखबार के लिए शासकीय मदद के लिए भी प्रयास किए गए, लेकिन येदियुरप्पा सरकार ने इस भाषा के लिए शासकीय विज्ञापन की व्यवस्था न होने का तर्क देते हुए शासकीय मदद से इनकार कर दिया है। आलम है कि आज सुधर्मा अपने अस्तित्व के लिए जंग लड़ रहा है।
वहीं संस्कृत को आम जनमानस तक पहुंचाने के लिए प्रयास करने वालों में एक नाम लखनऊ के प्रो. ब्रजेश कुमार शुक्ला का भी है। लखनऊ विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के प्रो. ब्रजेश कुमार शुक्ला पद्म श्री से सम्मानित हैं। 1992 में प्रोफेसर शुक्ला ने लखनऊ विश्वविद्यालय में बतौर शिक्षक पढ़ाना शुरू किया था और 2004 में प्रफेसर बने। इस दौरान वो संस्कृत और ज्योतिर्विज्ञान विभाग के हेड भी रहे। प्रोफेसर शुक्ला ने संस्कृत को जनमानस तक पहुंचाने के लिए तमाम प्रयास किए।
आज के दौर में रूस, जर्मनी, जापान, अमेरिका जहां एक तरफ हमारे वेद और उपनिषदों का अध्ययन कर भारत के प्रचीर ज्ञान को दुनिया के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं। वहीं दूसरी और हमारे ही देश में हम इंग्लिश बोलना अपनी शान की बात समझते हैं। माना जाता है कि यदि किसी भी देश की जाति, संस्कृति, धर्म और इतिहास को नष्ट करना है तो उसकी भाषा को सबसे पहले नष्ट किया जाए और मुगलों के भारत में प्रवेश के साथ यही घटनाक्रम शुरू भी हुआ। पहले आरबी और फिर ऊर्दू के दौर से संस्कृत के पतन का दौर शुरू हुआ और आखिर में ब्रिटिश राज में इंग्लिश के चलन को आजादी के बाद भी हमारे देश की सरकारों ने खत्म नहीं किया।
कहा जा सकता है कि देश से अंग्रेज तो चले गए, लेकिन अंग्रेजियत जस की तस बरकरार रही। या फिर यूं कहें कि सियासत दानों ने अपनी हुकूमत बरकरार रखने के लिए इसे जारी रखा, ताकि देश की आम जनता सरकार के बड़े बड़े निर्णयों को पेचीदा प्रणाली से वाकिफ ही न हो सके।
हालांकि अब देश में एक भारत, श्रेष्ठ भारत के जरिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की दिशा में यूपी सरकार का कदम वाकई काबिले तारीफ है। संस्कृत भाषा के उत्थान के लिए योगी सरकार ने अनूठी पहल की है। अब प्रदेश सरकार हिंदी, अंग्रेजी के अलावा संस्कृत भाषा में भी प्रेस नोट जारी करेगी। सीएम के निर्देश पर मुख्यमंत्री कार्यालय और सूचना विभाग ने ये कवायद शुरू कर दी है।
सीएम योगी संस्कृत भाषा में प्रेस नोट जारी करने वाले पहले मुख्यमंत्री बने हैं। इसके साथ ही हिमाचल देश का पहला ऐसा राज्य है जहां संस्कृत को दूसरी राजयकीय भाषा का दर्जा दिया गया है। कहा जा सकता है कि संस्कृत के घटते वजूद और देव वाणी के अस्तित्व को बचाने के लिए ये प्रयास वाकई कारगर साबित होगा, जिससे न सिर्फ भाषा का प्रचार प्रसार होगा, बल्कि रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे।