जनतंत्र डेस्क, नई दिल्ली: हिन्दू धर्मं के वर्णित चार धामों में से एक जगन्नाथ यात्रा 1 जूलाई से शुरु होने जा रही है। इसलिए आज हम आपको जगन्नाथ पुरी मंदिर स्थापना के बारे में विस्तार से बताएँगे। जगन्नाथ मंदिर उड़ीसा राज्य के एक स्थान पुरी में स्थित हैं। यह धाम भगवान जगन्नाथ यानि भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है। पुरी स्थान पर होने के कारण पूरे क्षेत्र को जगन्नाथ पुरी कहा जाता है। जगन्नाथ भगवान कृष्ण का ही एक नाम हैं जो कि दो शब्द जगन और नाथ से मिलकर बना हैं जिसका अर्थ होता हैं जग का स्वामी। जगन्नाथ उड़ीसा राज्य के समुद्री तट के नजदीक बसा हुआ है। इस मंदिर से, हर वर्ष मंदिर के मुख्य देवता भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा के विशाल रथों की शोभा यात्रा निकाली जाती है। इस दिन भगवान मंदिर से निकलकर नगर का भ्रमण करते हैं।
मंदिर स्थापना से जुडी कहानी
बताया जाता है कि इस मंदिर का पहला प्रमाण सबसे पहले महाभारत के वनपर्व में देखने को मिला था। जिसके अनुसार एक दिन मालवा के तेजस्वी राजा इंद्रदयुम्न के सपने में भगवान जगन्नाथ आये। सपने में भगवान जगन्नाथ इंद्रदयुम्न से कहते हैं कि “नीलांचल पर्वत की एक गुफा में मेरी एक मूर्ति है उसे नीलमाधव कहते है। तुम एक मंदिर बनवाकर उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो” अगले ही दिन राजा ने अपने करीबी ब्राह्मण विद्यापति को सैनिकों के साथ नीलांचल पर्वत भेज दिया।
विद्यापति ने सुन रखा था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने अपने देवता की इस मूर्ति को नीलांचल पर्वत की गुफा में छुपा रखा है। वह यह भी जानता था कि सबर कबीले का मुखिया विश्ववसु नीलमाधव का उपासक है उसी ने मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है और वह आसानी से मूर्ति राजा को नहीं सौपेगा।
चतुर विद्यापति मुखिया की बेटी से विवाह कर लेते हैं और अंतत वह अपनी पत्नी की सहायता से गुफा तक पहुँच जाते हैं और मूर्ति चुराकर राजा इंद्रदयुम्न को सौप देते हैं। जब विश्ववसु का यह पता चलता हैं कि उसके आराध्य देव की मूर्ति चोरी हो चुकी हैं तो वह बहुत दु:खी होता है। अपने परमभक्त को दुखी देख भगवान भी दुखी हो गए और मूर्ति के रूप में वापस गुफा में लौट आये लेकिन साथ ही राज इंद्रदयुम्न से वादा किया कि वो एक दिन उनके पास जरूर लौटेंगे बशर्ते कि वो एक दिन उनके लिए विशाल मंदिर बनवा दे।
कुछ वर्षो बाद राजा ने भगवान जगन्नाथ का विशाल मंदिर बनवा दिया और भगवान से मंदिर में विराजमान होने के लिए कहा। भगवान ने कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा पेड़ का बड़ा टुकड़ा उठाकर लाओ, जो कि द्वारिका से समुद्र में तैरकर पुरी आ रहा है। राजा के सेवकों ने भी उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए। तब राजा को समझ आ गया कि इस समस्या में नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्ववसु की सहायता लेना पड़ेगी। सब उस वक्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु अकेले भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।
लेकिन नगर के सभी कारीगरों की लाख कोशिशों के बाद भी लकड़ी को कोई तराश नहीं पाया। इसके बाद एक बूढ़े कारीगर के वेश में भगवान विश्वकर्मा प्रकट हुए और राजा के समक्ष आकर कहा वह मूर्ति बना तो सकते हैं लेकिन उनकी एक शर्त हैं उन्होंने अपनी शर्त रखी की 21 दिवस तक वह मूर्ति बनाने का कार्य करेंगे। मूर्ति बनाने के दौरान उनके समीप कोई भी नहीं होना चाहिए। राजा ने भी यह शर्त मान ली। इसके बाद बंद कमरे से लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं। इसी बीच राजा की पत्नी गुंडिचा भी बंद कमरे के निकट पहुँची लेकिन गुंडिचा को कोई भी आवाज नहीं सुनाई दी। गुंडिचा का यह आशंका हुई कि क्या कारीगर मर तो नहीं गया। रानी ने यह वृतांत राजा को सुनाया, अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया।
जैसे ही कमरे का द्वार खोला गया वहाँ कोई मौजूद नहीं था। वहीँ से 3 अधूरी मूर्तियां मिली पड़ी मिलीं भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे। राजा समझ गए वह बुढा आदमी अब कभी नहीं आएगा। राजा ने भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई-बहन इसी रूप में जगन्नाथ मंदिर में विराजमान हैं।