नई दिल्लीः देश में आज पूर्ण कोरोना नियमों के पालन के साथ सिखों के नौवें गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी का 400वां प्रकाश पर्व मनाया जा रहा है।लोग मास्क लगाकर मत्था टेकने पहुंच रहे हैं। कोरोना महामारी को देखते हुए इस बार गुरुद्वारों में कोई बड़ा प्रोग्राम नहीं बल्कि छोटे-छोटे कार्यक्रम ही किए जा रहे हैं। इस खास दिन पर गुरु साहिब के इतिहास और शहादत के बारे में बताया जाता है।
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गुरु तेग बहादुर जी का 400वां पर्व
बता दें की अमृतसर में जन्मे गुरु तेग बहादुर गुरु हरगोविन्द जी के पांचवें पुत्र थे, 8वें गुरु हरिकृष्ण राय जी के निधन के बाद इन्हें 9वां गुरु बनाया गया था। इन्होंने आनन्दपुर साहिब का निर्माण कराया और वहीं रहने लगे थे। मात्र 14 वर्ष की आयु में अपने पिता के साथ मुगलों के हमले के खिलाफ हुए युद्ध में उन्होंने अपनी वीरता का परिचय दिया। इस वीरता से प्रभावित होकर उनके पिता ने उनका नाम तेग बहादुर यानी तलवार के धनी रख दिया।बहादुर बचपन से ही बहादुर, निर्भीक स्वभाव वाले थे।
20 वर्ष तक की तपस्या
श्री गुरु तेग बहादुर जी ने अपना जीवन में मजलूम लोगों की अत्याचारियों से रक्षा करते हुए गुजारा। धैर्य, वैराग्य और त्याग की मूर्ति गुरु तेग बहादुर जी ने लगातार 20 वर्ष तक बाबा बकाला में तपस्या की। गुरु गद्दी मिलने के बाद वह श्री आनंदपुर साहिब आ गए। सिखी के प्रचार के लिए वह रूपनगर, सैफाबाद होते हुए बनारस, पटना, असम आदि क्षेत्रों में गए। यहां उन्होंने अध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक उन्नयन के लिए रचनात्मक कार्य किए,अंधविश्वासों की आलोचना कर नए आदर्श स्थापित किए।
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धर्म की खातिर दिया बलिदान
गुरु तेग बहादुर जी का जो सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रभाव है वह है धैर्य और शांति। यह उनके जीवन की धरोहर रही है जिसकी वजह से उन्होंने 26 साल लगातार भक्ति की। जब गुरुत्व मिला और दुश्मनों ने भी वार किया तब भी उन्होंने शांति रखने के लिए आनंदपुर नगरी बसा दी। उसके बाद उन्होंने धर्म की खातिर बलिदान दिया। उन्होंने मौत के बारे में जो लिखा है उसका शायद ही कहीं वर्णन मिलता है। मौत को उन्होंने पानी के बुलबले की तरह बताया है।