राम मोहन राय (Raja Ram Mohan Roy) का जन्म 22 मई, 1772 को बंगाल के राधापुर गांव में एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम जमीदार रमाकांत रॉय और माता का नाम तारिणी देवी था। ये परिवार सुबह से रात तक नियम से पूजा पाठ और कर्म काण्ड करने में बोहोत आस्था रखता था। सब काम विधि पूर्वक तारिणी देवी के हुक्म से चलते थे। राम मोहन जैसे ही थोड़े बड़े हुए उनकी शिक्षा गांव की पाठशाला में शुरू हो गई। वह पढ़ने लिखने में बोहोत तेज थे उनकी स्मरण शक्ति बोहोत अच्छी थी। अधिक जानकारी लेने के लिए वह हर बात पर सवाल करते रहते थे। उन्होंने बंगला और संस्कृत छोटी उम्र में ही सीख ली थी।
बेटे की प्रतिभा को देखते हुए पिता ने आगे पढ़ने के लिए राम मोहन राय को पटना भेज दिया। तब राम मोहन केवल 9 वर्ष के थे। देखने में छोटे इस बालक में अधबुध चिंतन वाला गंभीर विद्यार्थी भी था। पटना में उन्होंने अरबी और फारसी भाषाओं का अध्ययन किया। वो इस्लामी धर्मशास्त्र से भी परिचित हुए जैसे ही थोड़ा बड़े हुए तो प्रचलित मतों और धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करने में डूबे रहे।
बेटा पटना से पढ़कर लौटा तो रमाकांत और तारिणी देवी बोहोत प्रसन्न हुए। राम मोहन अब ऊंचे कद के आकर्षक व्यक्तित्व वाले नवयुवक हो गए थे। उनका स्वभाव बोहोत नर्म और शांत था। वह अपने शांत स्वभाव से माता पिता को स्नेह सम्मान देते थे। लेकिन राम मोहन अब पुरानी परंपराओं को आंख मूंद कर मानने के लिए तैयार नहीं थे। यह जानकर माता पिता को जल्द ही पता चल गया की उनका बेटा बदल गया है। सुलझे हुए नए विचारों की ताजी हवा उनके मन में प्रवेश कर चुकी है। उन्होंने कहा की अगर एक बच्चा कोई तर्क पूर्ण बात कहता है। तो उसे मान लेना चाहिए और राम मोहन राय के नए विचारों को तर्कों के साथ सुनने पर माता पिता चौंक गए। क्योंकि वो पुरानी परंपराओं और रूणियों की छाया में जीने वाले लोग थे।
Raja Ram Mohan Roy ने किसी की परवाह किए बिना। हिंदू समाज में फैले मूर्ति पूजा और अनगिनत अंधविश्वासों पर निबध लिखना शुरू कर दिया था। राम मोहन के विचार भविष्य के थे भला रूड़ी वादी माता पिता उन्हें कैसे स्वीकार करते। जब राम मोहन ने कहा की ईश्वर एक है। और अंधविश्वासों पर आंख मूंद कर विश्वास करना ही अज्ञान का कारण है। केवल एक अस्तित्व ही ब्राह्मण का संतुलन बनाए हुए है। ये सुनकर मोहन राय के माता पिता चौंक गए। इस विचारधारा को उनके खुद के माता पिता ने स्वीकार करने से इंकार कर दिया। तब उनके लिए और उनके नए विचारों के लिए हवेली में कोई इस्थान न रहा और उन्होंने घर छोड़ दिया इस समय वो केवल 16 वर्ष के थे ।
घर से निकल कर हिमालय की यात्रा करते हुए वह तिब्बत जा पोहोंचे, उन्होंने वहां पाया की बौद्ध लामा भी पूर्ण विचारों को ही मानते है। उन्हें आश्चर्य था सोचते थे की आखिर मेरे विचारों में ऐसा क्या खोट है जो लोग सुनते ही भड़क जाते हैं। हालांकि राम मोहन राय अपने सुलझे विचारों को विनम्रता पूर्वक कहते थे। की किसी एक अस्तित्व को स्वीकार करने की प्रवृत्ति प्राकृतिक रूप से हर इंसान में होती है।
पूजा या भक्ति का कोई विशेष रूप आदत या शिक्षा आदमी पर ऊपर से थोप दी जाती है। ऐसे ही विवाद में उपस्थित कुछ लोगों ने राम मोहन को बौद्ध धर्म का शत्रु समझ लिया। उनकी जान पर आ बनी लेकिन जब कुछ स्त्रियों ने सहायता की तो वो मुश्किल से बचे राम मोहन को तिब्बत में बोहोत कटु अनुभव हुआ। तिब्बत से लौटकर वह बनारस पोहोंचे उनका परिवार साथ ही था। वहां रहकर उन्होंने हिंदू धर्मशास्त्रों का गहन अध्ययन किया। बाद में उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकरी कर ली और वहां काम करते हुए उन्होंने अंग्रेजी भाषा सीख ली। इसी बीच उनके परिवार में एक दुर्घटना घटी।
सन 1811 में राम मोहन के बड़े भाई जग मोहन रॉय की मृत्यु हो गई उनकी भाभी को पति के शव के साथ सती होना था। ये राम मोहन के लिए असहाय था। क्योंकि इन दिनों हिंदू विधवाओं के साथ ऐसा ही अमानवीय और भयानक क्रूडता से भरा व्यवहार सामाजिक प्रचलन के अनुसार होता था। राम मोहन राय ने सभी को बताया की ये पुरानी सड़ी गली मान्यता है। ये सब मैं नहीं होने दूंगा उन्होंने अपनी भाभी को भी समझाया और उन्हें सती होने से रोकने का बोहोत प्रयास किया लेकिन वो बेचारी क्या करती वो तो समाज के हाथों विवश थी। घर में किसी ने राम मोहन राय की बात नहीं सुनी। उनकी भाभी को चिता से बांध दिया गया वो चीख चीखकर आग की लपटों से झुलसते शरीर का दर्द बताती रहीं पर किसी ने नहीं सुना और वो सती हो गई।
हिंदू समाज एक बोहोत बड़े अंधेरे में घिरा हुआ था। सती प्रथा, बाल विवाह, अशिक्षा तथा अन्य सामाजिक कुरीतियों ने पूरे समाज को बुरी तरह जकड़ रखा था। राम मोहन रॉय की मां के विचार तो और भी पुराने थे। उन्होंने घोषणा कर दी इसके लिए मेरे घर में स्थान नहीं। विवाद न बड़े इसलिए राम मोहन ने घर त्याग दिया। वह शमशान के निकट घर बनाकर रहने लगे उधर ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रतिनिधि के रूप में वह भूटान गए।
1814 में Raja Ram Mohan Roy कलकत्ता आकार बस गए। उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी छोड़ दी। अब उन्हें समाज सुधार के कामों के लिए अधिक समय मिलने लगा। उन्होंने अपने लेखों में लिखा शास्त्रों और तर्क द्वारा निर्धारित रास्तों पर हमें चलना चाहिए। सत्य की स्थापना के लिए शास्त्र तर्क और ईश्वर की दया तीनों ही अव्यशक हैं। तर्कों को हमारे नैतिकता के विवेक और ज्ञान का प्रकाश चाहिए। इसके बाद हम सर्वशक्तिमान ईश्वर की दया पर निर्भर कर सकते हैं।
भारतीय नारियों की दुर्दशा और उनके अधिकारों के बारे में उन्होंने एक पुस्तक लिखी। ‘the encroachment on the rights of hindu female’ अर्थात भारतीय नारियों के अधिकारों का हनन उनके लेख तथा पुस्तकों का प्रकाशन विभिन्न विषयों तथा भाषाओं में हुआ। जिससे उनके सशक्त विचार सारी दुनिया ने जान लिए। वहीं राम मोहन रॉय के आधुनिक और प्रगतिशील विचारों का विरोध हो रहा था। तो उनके प्रशंसकों की संख्या भी बढ़ रही थी, विरोधी उन्हें नास्तिक करार देने लगे जबकि सच तो ये था की वो आस्था में अटूट विश्वास रखते थे। वे इतना अध्ययन मनन कर चुके थे की विरोधियों को हार मानकर सर झुकाना पड़ा था।
राम मोहन रॉय सती प्रथा बंद करने का संकल्प कर चुके थे। 18 वर्षों के निरंतर संघर्ष के बाद उनके प्रयास सफल हुए। गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक ने राम मोहनरोय की बात को स्वीकार किया और 4 दिसंबर 1829 को सती प्रथा को कानूनी तौर से बंद करने का आदेश जारी करदिया।
14 अक्टूबर 1832 को वो फ्रांस के सम्राठ से पेरिस में मिले उत्साह से भरा मन लेकर वो लंदन लौट आए। उन्होंने वहां बादशाह अकबर द्वितीय का भत्ता बढ़ाने के लिए पैरवी की अंत में उनके तर्क स्वीकार कार्लिए गए। भत्ता तीन लाख रूपिए सालाना बढ़ा दिया गया इस प्रकार वो राजदूत के रूप में सफल रहे उनका इंग्लैंड आने का उद्देश्य सफल रहा।
लेकिन वो अस्वस्त हो गए मन भी अशांत था। इलाज हुआ लेकिन उनका स्वास्थ ठीक नहीं हुआ। ब्रिस्टल में 27 सितंबर 1833 को भारत मां के सपूत का अपने घर परिवार से दूर विदेश की धरती पर देहांत हो गया। राम मोहन रॉय ने अंधविश्वास और अशिक्षा के अंधेरे में पड़े भारतीय समाज में जागृति लाने के लिए अपना पूरा जीवन व्यतीत कर दिया। उनके विचारों के विरोधी उनपर लगातार प्रहार करते रहे लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी।
.