South Film Kannappa : जब एक शिकारी अपनी आत्मा के रास्ते ईश्वर तक पहुंचता है, तो वह कहानी सिर्फ कथा नहीं रह जाती – वह दर्शन बन जाती है। ‘कन्नप्पा’ इसी दर्शन की सिनेमाई प्रस्तुति है, जिसमें नायक का हृदय जितना जंगली है, उतना ही पवित्र भी है। विष्णु मांचू की फिल्म ‘कन्नप्पा’ 27 जून को सिनेमाघरों में रिलीज हो गई है। आइए क्या कहती है कन्नापा की कहानी?
जड़ों से जुड़ी हुई महागाथा
थिन्नाडु का किरदार विश्नु मंचू के लिए केवल एक ऐतिहासिक पात्र नहीं, बल्कि एक जीवंत प्रेरणा है। चेंचू जनजाति की मिट्टी से उपजा यह पात्र, अपने जीवन में न किसी वेद को पढ़ता है, न किसी गुरुकुल में जाता है – फिर भी वह शिव का सबसे बड़ा भक्त बन जाता है। यह बात फिल्म को अत्यंत मानवीय और सार्वकालिक बना देती है। क्योंकि ‘कन्नप्पा’ हमें यह सिखाता है कि आस्था न जात देखती है, न पद, न भाषा, न साधन – बस हृदय की पुकार चाहिए।
फिल्म के विजुअल्स सिर्फ दृश्य नहीं, अनुभव हैं। जंगलों के भीतर शूट हुए दृश्य, थिन्नाडु का एकांत, उसकी आंखों में पलती जिज्ञासा, और अंत में उसका आत्मसमर्पण – इन सबको कैमरे की दृष्टि ने न सिर्फ कैद किया है, बल्कि आत्मा में उतार दिया है। शिवलिंग पर थिन्नाडु द्वारा चढ़ाया गया मांस और जल – एक ऐसा दृश्य है जो धार्मिक परंपराओं से टकराता जरूर है, पर अंततः ईश्वर के सच्चे रूप को सामने लाता है – जो भावना से बंधा है, विधियों से नहीं।
भावनाओं का शिखर: अंतिम 40 मिनट
कई दर्शकों और समीक्षकों का कहना है कि फिल्म का अंतिम 40 मिनट भारतीय सिनेमा के सबसे भावनात्मक हिस्सों में से एक है। जब कन्नप्पा भगवान शिव के लिए अपनी आंखें समर्पित करता है, तो थिएटर में सिर्फ सन्नाटा और आंसू बचे रह जाते हैं। उस क्षण नायक और दर्शक – दोनों ही एक आध्यात्मिक यात्रा के हिस्सेदार बन जाते हैं। प्रभास, मोहनलाल और अक्षय कुमार जैसे सितारों की उपस्थिति फिल्म को केवल ग्लैमर नहीं देती, बल्कि एक पवित्र ऊंचाई पर पहुंचा देती है। खासकर प्रभास का ‘रूद्र’ अवतार, युद्ध के दृश्य और शिवत्व की गर्जना – वह दृश्य सिरहन पैदा करते हैं। अक्षय कुमार का ‘शिव’ रूप एक दुर्लभ सिनेमाई प्रसाद जैसा लगता है – शांत, गंभीर और करुणामय।
फिल्म जो छोड़ जाती है विचार
‘कन्नप्पा’ एक सरल प्रश्न छोड़ती है क्या आज भी हममें वह श्रद्धा बची है? क्या हम अपने ईश्वर के लिए, अपने विश्वास के लिए, इतना समर्पण कर सकते हैं? तो ‘कन्नप्पा’ केवल एक फिल्म नहीं, एक अनुभव है। यह हमें याद दिलाती है कि कभी-कभी एक शिकारी भी संत बन सकता है, अगर उसकी भक्ति सच्ची हो।