तेल की बिगड़ी धार, बेहाल ‘सुपरपावर’ !
पुरानी कहावत है हमारे यहां तेल देखो, तेल की धार देखो….और आज तेल की धार पर कोरोना ने ऐसा ब्रेक लगा दिया कि खुद को सुपरपावर कहने वाले देश भी समझ नहीं पा रहे कि ये वक्त भी आना था….कभी ‘तरल सोना’ कहा जाने वाला तेल आज पानी के भाव भी नहीं बिक पा रहा है…
कोरोना की मार से कच्चे तेल के दाम में ऐतिहासिक गिरावट दर्ज की गई…हालत ये है कि अमेरिका में कच्चे तेल की कीमत बोतलबंद पानी से भी कम यानी करीब 77 पैसे प्रति लीटर हो गई है…और तो और अंतरराष्ट्रीय बाजार में अमेरिकी वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट कच्चे तेल का भाव गिरते-गिरते शून्य तक जा पहुंचा…और ऐसा इसीलिए हुआ क्योंकि मई में तेल का करार निगेटिव हो गया यानि खरीदार तेल लेने से इनकार कर रहे हैं…वहीं, उत्पादन इतना हो गया है कि अब तेल रखने की जगह नहीं बची है…और ये सब हुआ कोरोना के चलते …गाड़ियां चल नहीं रहीं … कामकाज और कारोबार बंद पड़ा है लिहाजा खपत और उसकी मांग में भी कमी आई है…कनाडा में तो तेल के कुछ उत्पादों की कीमत माइनस में चली गई है…जाहिर है असर तो दिखना ही था…सोमवार को जब बाजार खुला तो अमेरिकी वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट कच्चे तेल का भाव 10.34 डॉलर प्रति बैरल पर आ गया जो 1986 के बाद इसका सबसे निचला स्तर था…इसके बाद दोपहर होते होते ये दो डॉलर प्रति बैरल के न्यूनतम स्तर पर जा पहुंचा और फिर तो जो हुआ वो इतिहास में दर्ज हो गया…दाम गिरते-गिरते 0.01 डॉलर प्रति बैरल पर जा पहुंचा….औरकुछ इस तरह से चंद घंटों में ही तेल बेभाव हो गया।
कहते हैं कि वक्त की मार सबसे ताकतवर होती है…और अमेरिका से बेहतर इस वक्त इस बात को कोई और नहीं समझ सकता…लगातार बढ़ता नागरिकों की मौत का आंकड़ा…डूब चुकी अर्थव्यवस्था…बेरोजगारों की लंबी होती कतारों के बीच तेल के दामों में ऐसी ऐतिहासिक गिरावट कि तेल ‘पानी’ भी नहीं रहा। जबकि पूरी दुनिया गवाह है कि तेल के इस खेल में बाजी मारने के लिए अमेरिका ने क्या- क्या नहीं किया.. उसकी विस्तारवादी नीति ने दुनिया को कई बार मुश्किल में डाला…खासकर जब से तेल के खेल में अमेरिका की रुचि बढ़ी…लेकिन इससे पहले तेल की वैश्विक सियासत को भी समझना होगा।
तेल से न सिर्फ़ दुनिया की नब्बे फीसद गाड़ियाँ बल्कि ज्यादातर फैक्ट्रियां चलती हैं वहीं देश अपने भविष्य के विकास की रूपरेखा ही तेल की धार को देखकर तय करते हैं, ऐसे में तेल के लिए टकराव स्वाभाविक है..साल 1930 के दशक से ही तेल की राजनीति की कहानी शुरू हो गई थी यानी ये वो वक्त था जब मध्य पूर्व एशिया में तेल मिलना शुरू हुआ….पहले ब्रिटेन और फिर अमरीका ने तेल को लेकर योजनाएँ बनाईं जिनमें तेल की कूटनीति की कई योजनाएँ शामिल रहीं …. तेल और तेल बाजार पर कब्जे की जंग नई नहीं है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एशियाई और लैटिन अमेरिकी देशों के तेल और गैस भंडार पर कब्जे के लिए अमेरिकी कंपनियों ने कई खेल खेले। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही अमेरिका की कोशिश रही है कि तेल के भंडारों से उसे लगातार, बिना किसी परेशानी के तेल मिलता रहे और तेल के उत्पादन और उसकी बिक्री बिना किस रुकावट के चलती रहे .. अमेरिका ने 1950 के दशक से ही कई देशों की अंदरूनी राजनीति में तेल के कारण दख़ल देना शुरू कर दिया था. 1953 में ब्रिटेन और अमरीका ने मिलकर ईरान के चुने हुए प्रधानमंत्री मोहम्मद मुसद्दिक़ का तख़्तापलट करवाकर शाह रज़ा पहलवी को गद्दी पर बिठाया..और फिर. रज़ा शाह ने पश्चिमी देशों को ईरान के तेल क्षेत्र में घुसने की छूट दे दी. 1991 में अमरीका ने सैनिक कार्रवाई कर कुवैत से सद्दाम हुसैन को पीछे हटाया ताकि सद्दाम वहाँ के तेल पर कब्ज़ा न कर लें….लैटिन अमेरिकी देश इक्वाडोर और वेनेजुएला अमेरिकी ऊर्जा कंपनियों के मुनाफे के खेल के शिकार हैं।
यहां पर अपने हिसाब से अमेरिकी प्रशासन तख्ता पलट करवाता रहता है। लेकिन अमेरिकी आर्थिक विस्तारवाद को रूस ने लंबे समय तक चुनौती दी क्योंकि अमेरिकी तेल कंपनियों के वैश्विक तेल बाजार में विस्तार के प्रयासों से रूस खुश नहीं …और अब इस खेल में चीन भी शामिल है। वैश्विक तेल बाजार में चीन भी निवेश के नाम पर घुसपैठ कर रहा है। यही अमेरिका और सऊदी अरब की बड़ी परेशानी है।
साफ है कि तेल बाजार का राजनीतिकरण बहुत तेजी से बढ़ा जो दुनिया में न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक, कूटनीतिक अस्थिरता को बढ़ा रहा है…जो वैश्विक लिहाज से बेहद खतरनाक है…और वक्त रहते तेल के खेल में शामिल तमाम खिलाड़ियों को इसे समझना होगा ताकि तेल की आग दुनिया को जलाकर खाक न कर दे।
– वासिन्द्र मिश्र