आईआईटी दिल्ली के रिटायर्ड प्रोफेसर जिनकी उम्र 77 साल है, लेकिन ज़िंदगी की किताब का नया अध्याय उन्होंने सड़क पर लिखना शुरू किया। वीके त्रिपाठी से आईआईटी प्रोफेसर से समाजसेवी तक के सफर बहुत चुनौतीपूर्ण रहा लेकिन अपने जज्बों के साथ ग़जा में हो रहे जुल्म पर इंसानियत का पैगाम दे रहे है और आज दिल्ली की सड़कों पर खड़े होकर आम लोगों में जागरूकता के लिए पर्चे बाँट रहे हैं। इतना ही 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस के दिन ग़जा के लोगों के लिए एक उपवास रखा।
आईआईटी दिल्ली के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर वीके त्रिपाठी करीब 3 दशकों से जनसरोकार के मुद्दों को लेकर पर्चे बांट रहे है और लोगों को जागरुक कर रहे है। वी के त्रिपाठी पहले अमेरिका में रहते थे। लेकिन देश और समाज की सेवा के लिए भारत लौट आए। उन्होंने जन आंदोलनों समाजिक मुद्दों और शिक्षा के क्षेत्र में लोगों को जोड़ने का काम शुरू किया। वर्तमान में ग़जा में भुखमरी और अकाल की स्थिति को लेकर दिल्ली में पर्ची बांट रहे हैं। जनतंत्र टीवी की खास बातचीत में उन्होंने बताया कि कई बार उन्हें इस काम में कई चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा लेकिन उनका मिशन जारी रहेगा।
वीके त्रिपाठी की पृष्ठभूमि
वीके त्रिपाठी का जन्म और बचपन साधारण माहौल में बीता। पढ़ाई में हमेशा आगे रहे और विज्ञान की पढ़ाई के लिए अमेरिका तक गए। वहां उन्हें रिसर्च और पढ़ाई के बड़े अवसर मिले, लेकिन उन्होंने तय किया कि उनकी असली सेवा भारत में होगी। भारत लौटकर उन्होंने आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर के तौर पर काम शुरू किया। आईआईटी दिल्ली में पढ़ाते हुए भी वीके त्रिपाठी का ध्यान हमेशा समाज की समस्याओं पर रहा। गरीबी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, असमानता जैसे मुद्दे उन्हें परेशान करते थे। उन्हें लगा कि शिक्षा सिर्फ क्लासरूम तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि लोगों तक पहुंचनी चाहिए। यहीं से उन्होंने ठान लिया कि वो लोगों में जागरूकता लाएंगे। ऐसे में करीब तीस साल पहले उन्होंने पर्चे बांटना शुरू किया और लगातार इस काम को कर रहे है।
गज़ा के संकट पर लोगों को कर रहे जागरूक
इन दिनों वीके त्रिपाठी गज़ा के हालात पर लोगों का ध्यान खींचने के लिए लोगों को पर्चा बांट रहे है। गज़ा में इन दिनों अकाल घोषित हो चुका है और लोग भूख से मर रहे हैं। वीके त्रिपाठी कहते हैं कि मानवता की पीड़ा किसी एक देश की नहीं होती, यह पूरी दुनिया की जिम्मेदारी है। भारत के लोगों को भी जागरूक होना चाहिए ताकि वे समझ सकें कि युद्ध और हिंसा का असर हर जगह पड़ता है।
गौरतलब है कि 7 अक्टूबर 2023 को हमास ने इसराइल पर हमला किया था। जिसमें कई लोग मारे गए थे और कई लोगों को बंधक बना लिया गया था। इसके बाद ही ग़जा में जंग जारी है। UNICEF के मुताबिक, इस दौरान 50 हजार से ज्यादा बच्चों की जाने जा चुकी है । UNRWA के अनुसार, ग़जा में हर पांच बच्चों में से एक कुपोषण का शिकार है। लेकिन आईआईटी के रिटायर्ड प्रोफेसर वीके त्रिपाठी कहते है, “1990 में मैं भागलपुर की दंगे की जब खबर पढ़ी तो मुझे बहुत दुख हुआ। मैं उस वक्त अमेरिका में था फिर मैं तीन हफ्ते की छुट्टी लेकर हिंन्दुस्तान आया। ये मालूम करने की मुल्क का माहौल कैसा है। उस दिन मेरा दिमाग बैठ गया कि इस देश में नफरत की आंधी चल रही है। उस दिन से मैंने तय कर लिया था कि पूरी जिंदगी का बड़ा हिस्सा सांप्रदायिकता में जमीनी रेजिस्टेंस खड़ा करने में लगाऊंगा”।
उनकी राह आसान नहीं रही। कई बार लोग पर्चे फाड़ देते, मज़ाक उड़ाते या उन्हें नज़रअंदाज़ कर देते। कुछ मौकों पर उन्हें धमकियां भी मिलीं। लेकिन प्रो. त्रिपाठी कहते हैं कि अगर सच बोलने में कठिनाई न हो तो वो सच ही कैसा। उनकी मान्यता है कि सड़क पर उठे सवाल ही संसद तक पहुंचते हैं।
‘मैंने ये काम 1989-90 से चालू किया’
उन्होंने बताया,”मैंने ये महसूस किया कि जब 1940 के दशक में परमाणु बम बनाया गया और 1945 में जापान में गिराया गया था उसी समय उतनी ही ताकतवर एक चीज 20वीं सदीं में खड़ी हुई और वो है नफरत की ताकत, राजनितिक ताकत जो पूरी दुनिया में मौजूद है। अलग-अलग नस्लीय नफरत, जातीय नफरत, धार्मिक नफरत है। ये सन् 1989-1990 के दौरान हिंदुस्तान में जो फसाद हुए (भागलपुर दंगा,राम मंदिर दंगा) ये कोई धार्मिक जुनुन नहीं था, बल्कि ये सामाज्य्रवादी जुनुन था कि दबा के रखो, कुचल कर रखो, हुकुमत लाओ ताकि सच्ची आवाजें खामोश हो जाए, मजदूर किसान की आवाज दब जाएं। लेकिन तब मैंने 1989-90 से काम चालू किया और लगातार ये काम करता रहूंगा चाहे कितनी भी चुनौतियों का सामना करना पड़े।
इतना ही नहीं वीके त्रिपाठी आगे कहते है कि मेरे पिताजी आजादी के लड़ाई में गांधी जी के साथ स्वतंत्रता सैनानी थे। 13 साल उन्होंने आजादी के लड़ाई में लगाए थे। एक तो उनका असर मेरे ऊपर था।
जब तक वो नौकरी करते रहे उनका 4 से 5 घंटे सड़कों पर जाने में लोगों से बातचीत करने में गुजरता था। 2018 में वी के त्रिपाठी रिटायर्ड हुए और जिसके बाद वो आज भी सड़कों पर घूमते रहते है। स्कूलों में बच्चों को लेक्चर देना, बस्तियों में सभाएं करना, पर्चें बांटना उनका मिशन है। प्रोफेसर वीके त्रिपाठी कहते है कि 2019 में सुरत बदली। लेकिन एक दिन अचानक जब वो कश्मीर के मुद्दें पर घूम घूमकर चिलचिलाती धूप में पर्चे बांट रहे थे तभी दोपहर का वक्त था और अचानक उन्हें एक शख्स पाकिस्तानी और गद्दार तक कह दिया। लेकिन फिर भी वो खुद में इंसान को जगाने का काम कर रहे हैं।
आज 77 साल की उम्र में भी उनका जज़्बा कम नहीं हुआ। हर सुबह बैग में दर्जनों पर्चे रखते हैं और सड़क पर निकल जाते हैं। कई बार लोग बिना पढ़े ही पर्चा फेंक देते हैं, लेकिन कुछ लोग रुककर उनसे सवाल करते हैं, बातचीत करते हैं। यही उनका मकसद है। लोग सोचें, सवाल करें और बदलाव की दिशा में कदम उठाएं। आईआईटी दिल्ली के रिटायर्ड प्रोफेसर वीके त्रिपाठी ने हमें यह सिखाया है कि समाज बदलने के लिए मंच, माइक या बड़ी भीड़ नहीं चाहिए। बस सच्ची नीयत और हिम्मत चाहिए। उनका कहना है कि एक छोटा-सा पर्चा भी क्रांति की शुरुआत कर सकता है और जब तक उनकी सांसें चल रही हैं, यह सफर जारी रहेगा।