मनीषा हत्याकांड (हरियाणा, 2025) : हरियाणा के भिवानी ज़िले में 19 वर्षीया मनीषा, जो एक प्लेस्कूल में शिक्षिका थीं, 11 अगस्त 2025 की दोपहर स्कूल से निकलकर पास के नर्सिंग कॉलेज में प्रवेश संबंधी जानकारी लेने गई लेकिन वापस नहीं लौटी। परिवार की मानें तो स्थानीय थाना पुलिस ने उसी दिन गुमशुदगी दर्ज करने में टाल-मटोल की और कहा कि “शायद वह घूमने चली गई होगी, कुछ दिन में लौट आएगी”। दो दिन बाद 13 अगस्त को सिंहानी गाँव के पास नहर किनारे खेत में मनीषा का शव क्षत-विक्षत हालत में मिला। प्रारंभिक तौर पर पुलिस ने अज्ञात के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किया, क्योंकि गर्दन पर गहरा जख्म और चेहरा बिगड़ा हुआ था, जिससे जनता में यह धारणा बनी कि गला रेतकर हत्या की गई है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने पर कहानी ने मोड़ लिया – पुलिस ने दावा किया कि यह हत्या नहीं, आत्महत्या है। जांच अधिकारियों के मुताबिक मनीषा ने खुद कीटनाशक पीकर जान दी; मौके से मिला एक कथित सुसाइड नोट और कीटनाशक ख़रीद की पर्ची को बतौर सबूत पेश किया गया। शव परीक्षण में मनीषा के शरीर में ज़हर (कीटनाशक) की मौजूदगी की पुष्टि हुई। लेकिन परिवार ने आत्महत्या के निष्कर्ष को सिरे से खारिज कर दिया। मनीषा के पिता संजय ने कहा, “मेरी बेटी आत्महत्या कर ही नहीं सकती” और न्याय की मांग पर अड़ गए। 14 अगस्त को पोस्टमार्टम के बाद परिजनों ने शव को लेने से इंकार कर दिया और कहा कि जब तक आरोपी नहीं पकड़े जाते तब तक शव नहीं लिया जाएगा। इस बीच मनीषा का अंतिम संस्कार रोककर सैकड़ों ग्रामीण धरने पर बैठ गए। बाद में 15 अगस्त को नायब सैनी सरकार ने लापरवाही पर एसपी मनबीर सिंह को हटा दिया और लौहारू पुलिस चौकी के एसएचओ सहित पांच कर्मचारियों को सस्पेंड कर दिया. गौर रहे कि इस पूरे प्रकरण में तीन बार युवती के शव का पोस्टमार्टम किया गया है।
प्रोफेसर कविता चौधरी हत्याकांड (2006)
प्रोफेसर कविता चौधरी हत्याकांड (उत्तर प्रदेश, 2002) पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ में चौ. चरण सिंह यूनिवर्सिटी (CCSU) की अस्थायी लेक्चरर डॉ. कविता चौधरी (उम्र 29) अक्टूबर 2006 में रहस्यमय परिस्थिति में लापता हो गईं। अगले दिन उनका शव बरामद नहीं हुआ, बल्कि परिवार की शिकायत पर अपहरण का मामला दर्ज हुआ। यह मामला उस दौर में सुर्खियों में छा गया क्योंकि शुरुआती जांच में तीन तत्कालीन राज्य मंत्रियों और विश्वविद्यालय के कुलपति का नाम सामने आया। सीबीआई जांच से खुलासा हुआ कि कविता को 23 अक्टूबर 2006 को पांच साथियों ने अगवा कर बेहोशी की दवा देकर गला घोंटा और उनका शव बुलंदशहर की एक नदी में फेंक दिया। जांच में एक वीडियो सीडी भी बरामद हुई, जिसमें एक पूर्व सिंचाई मंत्री मेराजुद्दीन अहमद को कविता के साथ आपत्तिजनक हालत में दिखाया गया था। बताया गया कि कविता और उनके सहयोगियों ने इस सीडी के ज़रिये मंत्री से ₹35 लाख की रकम उगाही थी। बाद में रुपयों के बँटवारे को लेकर कविता का अपने ही साथियों से विवाद हुआ और साजिशन उसकी हत्या कर दी गई। मुख्य आरोपी रविंद्र प्रधान (कविता का विश्वासपात्र) 2008 में जेल में संदिग्ध हालात में मारा गया, जबकि उसके भतीजे समेत सुल्तान सिंह व योगेश को 2011 में उम्रकैद हुई। कविता का शव आज तक नहीं मिला, मगर अभियुक्तों के बयानों, कॉल डिटेल रिकॉर्ड और बरामद सीडी जैसे सबूतों के आधार पर घटना की परतें खोली गईं।
दो घटनाएँ पर एक जैसी पीड़ा
डॉ. कविता चौधरी और मनीषा दोनों शिक्षिकाएँ थीं, आत्मनिर्भर और सामाजिक रूप से सक्रिय। दोनों के साथ जो हुआ, वह न केवल उनके परिवारों के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए झकझोर देने वाला था। कविता को सत्ता और साजिशों के बीच घसीट कर चुप करा दिया गया, जबकि मनीषा की मौत ने आधुनिक भारत की तकनीकी और न्यायिक संरचना पर सवाल खड़े कर दिए। दोनों मामलों की जांच में चौंकाने वाली समानता यह है कि अंततः इनकी गुत्थी सुलझाने के लिए राज्य पुलिस पर भरोसा टूटकर केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) की ओर रुख करना पड़ा। दोनों ही मामलों में सीबीआई की भूमिका इसलिए अहम बनी क्योंकि पीड़ित परिवार और आमजन को लगा कि प्रदेश की पुलिस निष्पक्ष जांच करने में असमर्थ या किसी दबाव में है।
जांच प्रक्रिया में बदलाव तो हुए, लेकिन भरोसे की कमी अब भी है
जांच प्रक्रिया में अंतर समय के तकाज़ों और तकनीकी संसाधनों के अंतर से झलकता है। कविता के केस (2006) में न तो सोशल मीडिया था, न सीसीटीवी की भरमार सुबूत इकट्ठा करने के लिए अधिकारियों ने फ़ोन कॉल रिकॉर्ड, बैंक लेनदेन और बरामद सीडी जैसे राजनीतिक लिंक ही जांच की धुरी बने।
लेकिन मनीषा केस में पुलिस के पास डिजिटल साक्ष्य, GPS लोकेशन, तीन बार पोस्टमार्टम और सोशल मीडिया इनपुट्स भी थे। पुलिस ने इलाके के सीसीटीवी खंगाले तो मनीषा 11 अगस्त को एक कीटनाशक दुकान में दिखी, दुकानदार के रजिस्टर में उसका नाम व ख़रीदे गए ज़हर की मात्रा दर्ज मिली। कई चरणों में पोस्टमार्टम किए गए। भिवानी और रोहतक के सरकारी मेडिकल कॉलेजों की दो टीमों ने शव का परीक्षण कर चेहरे व गले पर दिखाई देने वाले जख्मों को चीरफाड़ नहीं बल्कि जंगली जानवरों द्वारा नोंचे जाने (gnawing effect) का परिणाम बताया। दोनो रिपोर्ट में बलात्कार की आशंका खारिज की गई और गले पर कट का कोई निश्चित निशान नहीं मिला। इस प्रकार जहां पुराने मामले में फॉरेंसिक साक्ष्य कम थे, वहीं नए मामले में कई वैज्ञानिक सबूत तेजी से जुटाए गए। अंतर यह भी है कि कविता हत्याकांड में जांच और मुकदमे में सालों लग गए, जबकि मनीषा मामले में चंद दिनों में जांच की दिशा तय करने हेतु विशेष मेडिकल पैनल, दूसरी पोस्टमार्टम, इंटरनेट बैन, CBI सिफारिश जैसी कार्यवाहियां हो गईं।बावजूद इसके, दोनों ही मामलों में शुरुआती जांच में लापरवाही देखी गई और पीड़ित पक्ष को समय रहते न्याय नहीं मिला। इससे यह साफ़ होता है कि जांच प्रक्रिया भले विकसित हुई हो, लेकिन निष्पक्षता और गंभीरता आज भी संदेह के घेरे में है।
राजनीतिक प्रभाव और पुलिस की भूमिका
कविता केस में तत्कालीन सत्तारूढ़ दल के नेताओं और मंत्री पर सीधे आरोप लगे, फिर भी न्याय नहीं मिला। मनीषा केस में प्रारंभ में पुलिस ने आत्महत्या की थ्योरी पर भरोसा किया, लेकिन बाद में सोशल मीडिया की मांग और जनआक्रोश ने CBI जांच तक का रास्ता खोला। इससे यह सिद्ध होता है कि राजनीतिक प्रभाव भले प्रत्यक्ष न हो, लेकिन प्रशासन की प्रतिक्रिया उस दबाव पर ही निर्भर करती है, जिसे समाज खड़ा करता है। मनीषा केस में राजनीतिक प्रभाव जनता के गुस्से को शांत करने के प्रयासों और सियासी बयानबाज़ी में दिखाई दिया। 2025 में हरियाणा में सत्तारूढ़ दल (भाजपा) पर विपक्षी दलों ने कानून-व्यवस्था विफल होने के आरोप जड़ दिए। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा जैसे कांग्रेस नेताओं ने पुलिस व सरकार को “लापरवाह व गैर-जिम्मेदार” बताया और सरकार पर पूरे मामले को जबरन आत्महत्या साबित करने की कोशिश करने का आरोप लगाया। बढ़ते दबाव को देखते हुए राज्य सरकार ने सक्रिय रुख अपनाया – मुख्यमंत्री की ओर से सोशल मीडिया पर बयान जारी हुआ कि “भिवानी की बेटी मनीषा को न्याय दिलाने के लिए सरकार पूरी गंभीरता से काम कर रही है” तथा परिवार की मांग पर केस CBI को देने का फैसला हुआ। कुल मिलाकर मनीषा केस में पुलिस की शुरुआती ढिलाई के कारण जन आक्रोश फूटा, जो राजनीतिक हस्तक्षेप के बाद ही शांत हुआ। पुलिस पर लगे आरोप – जैसे गुमशुदगी रिपोर्ट दर्ज करने में देरी, सही वक्त पर तलाश न करने और फिर जांच को आत्महत्या की ओर मोड़ने का शक – ने साफ किया कि बिना निष्पक्ष जांच के जनता का भरोसा नहीं जीता जा सकता। सरकार ने यह संदेश देने की कोशिश की कि वह “बेटी के न्याय” के पक्ष में है, पर यह जनदबाव का ही असर था कि सत्तापक्ष को फौरन कदम उठाने पड़े
जन दबाव और सोशल मीडिया की ताक़त
2006 में कविता चौधरी की मौत हुई, तब न सोशल मीडिया था, न वायरल हैशटैग्स। लेकिन तब भी यह मामला अखबारों और टीवी चैनलों पर छाया रहा था। राष्ट्रीय स्तर पर हेडलाइन्स बनने से समाज में आक्रोश था कि एक शिक्षित विश्वविद्यालय प्रवक्ता की ऐसी निर्मम हत्या सियासी मिलीभगत से की गई। कविता के परिजनों ने कानूनी लड़ाई जारी रखी और 2016 में अदालत के जरिए मामले को फिर से खुलवाने में सफलता पाई। कहा जा सकता है कि उस समय जनता की आवाज का माध्यम मुख्यतः प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया थे, जहां यह कांड लंबे समय तक चर्चा में रहा। आज, मनीषा केस में हर अपडेट #JusticeForManisha के ज़रिए ट्विटर से लेकर गाँव के व्हाट्सऐप ग्रुप तक फैल गया। यह बदलाव एक सकारात्मक संकेत है कि अब जनता चुप नहीं रहती बल्कि सवाल पूछती है, जवाब मांगती है, और आंदोलन खड़ा करती है। देखते ही देखते भिवानी से लेकर प्रदेश के कई जिलों में सड़कों पर लोग उतर आए। भिवानी के ढाणी लक्ष्मण गाँव में महिलाओं-पुरुषों ने सामूहिक पंचायत कर ऐलान कर दिया कि जब तक “मनीषा के कातिल” पकड़े नहीं जाते, तब तक न अंतिम संस्कार होगा न आंदोलन रुकेगा। युवाओं और विद्यार्थियों ने कैंडल मार्च निकाले, नारे लगाए – “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” के नारों के बीच यह कड़वा सवाल गूंजा कि जब पढ़ने वाली बेटियाँ ही सुरक्षित नहीं, तो इस नारे का क्या अर्थ? राज्य के जिन हिस्सों में सीधी भागीदारी संभव नहीं थी, वहाँ सोशल मीडिया के जरिये भारी समर्थन उमड़ा। इसी ऑनलाइन विरोध को नियंत्रित करने के लिए सरकार को इंटरनेट पर अस्थायी रोक तक लगानी पड़ी। एक ओर फेसबुक-ट्विटर पर लोग पुलिस की थ्योरी पर सवाल उठा रहे थे, वहीं भिवानी में ग्रामीणों ने मुख्य सड़कें अवरुद्ध कर प्रशासन का प्रवेश वर्जित कर दिया था। व्हाट्सऐप पर कई भ्रामक जानकारियाँ भी फैलीं। मसलन कुछ लोगों ने दावा किया कि मनीषा के अंग गायब थे या एसिड अटैक हुआ, जिसे प्रशासन ने खंडन करते हुए साफ किया कि ये महज़ अफवाहें हैं। कुल मिलाकर, मनीषा हत्याकांड पर लोगों की भावना उबाल पर थी। सोशल मीडिया आज जनमत को शक्तिशाली ढंग से प्रकट करने का मंच है । इसी दबाव ने प्रशासन को कदम उठाने पर मजबूर किया और एक सप्ताह के भीतर ही प्रदेश सरकार को सीबीआई (CBI) जांच के आदेश देने पड़े।
न्याय की प्रक्रिया आज भी वैसी की वैसी
किसी भी आपराधिक मामले में न्याय दिलाने की राह में कई चुनौतियाँ आती हैं, लेकिन जब मामला जटिल हो या प्रभावशाली लोगों से जुड़ा हो, तो ये चुनौतियाँ और बढ़ जाती हैं।
कविता केस में एक दशक तक परिजन कोर्ट का चक्कर काटते रहे और अंततः न्याय अधूरा रह गया। क्योंकि उसमें पहली चुनौती थी सबूतों की कमी क्योंकि शव ही नहीं मिला और दूसरी चुनौती थी सत्ता से जुड़े आरोपियों पर कानून का शिकंजा कसना। अदालत द्वारा CBI की क्लोज़र रिपोर्ट खारिज करना दिखाता है कि हमारी न्याय प्रणाली में निगरानी व संतुलन की गुंजाइश है। लेकिन इसमें लगा एक दशक का समय अपने-आप में न्याय में देरी (Justice Delayed) की चुनौती उजागर करता है। इस दौरान एक मुख्य आरोपी की जेल में संदिग्ध मृत्यु होना भी सवाल खड़े करता है कि क्या वह मुख्य राज़दार था जिसकी जान दबाव में चली गई? यह संदेह हमेशा रहेगा। ऐसे मामलों में गवाहों का मुकर जाना, सबूतों का अभाव, और लंबी कानूनी प्रक्रिया जैसी समस्याएँ न्याय हासिल करने को पेचीदा बना देती हैं।
मनीषा केस की जांच भले तेजी से शुरू हुई हो, लेकिन अब भी फैसला आना बाकी है। दोनों ही घटनाएं यह दिखाती हैं कि न्याय प्रणाली में पारदर्शिता और त्वरित कार्यवाही आज भी एक सपना मात्र है। मनीषा केस में न्यायिक चुनौतियाँ शुरुआत से ही सामने आ गई हैं। पहली चुनौती है सच्चाई की परत खोलना क्योंकि पुलिस कह रही है यह आत्महत्या है और परिवार अड़ा है कि यह हत्या है। सच्चाई तक पहुंचना आसान नहीं क्योंकि घटनास्थल सुनसान खेत था, कोई चश्मदीद गवाह सामने नहीं आया। तकनीकी जांच के आधार पर पुलिस ने निष्कर्ष दे दिया, लेकिन जनता और परिवार को पुलिस की नीयत पर शक है कि अगर सच में आत्महत्या थी तो फिर लापरवाही बरतने वाले पुलिस वालों को निलंबित क्यों किया गया? पिता के अनुसार, “अगर 13 तारीख को ही सुसाइड नोट मिल गया था तो फिर SP को बदला और पांच पुलिसकर्मियों को सस्पेंड क्यों किया?” ।
दूसरी बड़ी चुनौती है जनविश्वास बहाल करना। लिहाजा दोबारा पोस्टमार्टम से लेकर CBI जांच तक की मांग उठी। वक्त बीतने के साथ सबूत भी कमजोर होते जाते हैं। मनीषा का शव बरामद होने में ही दो दिन लग गए। यदि शुरुआत में ही पुलिस अलर्ट होकर सर्च अभियान चलाती तो शायद मनीषा को बचाया जा सकता था या कम से कम हालात स्पष्ट मिलते। अब CBI जांच शुरू होने पर भी चुनौतियाँ कम नहीं है। अगर हत्या हुई थी तो हत्यारा अज्ञात है, कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं, ऐसे में केस सुलझाना मुश्किल होगा और अगर वाकई आत्महत्या का मामला हुआ, तब भी यह जानना ज़रूरी होगा कि आखिर मनीषा को इतना बड़ा कदम उठाने पर किसने मजबूर किया? क्या उसके पीछे किसी तरह का मानसिक उत्पीड़न था? इन पहलुओं पर पर्दा हटाना न्याय प्रणाली के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है। कुल मिलाकर, मनीषा केस भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली की चुनौतियों को एक बार फिर उजागर करता है ।
महिला सुरक्षा के दावे धरातल पर कमजोर
दोनों ही मामलों में पीड़ित शिक्षिकाएँ थीं… पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर और सामाजिक रूप से सशक्त। फिर भी, न उन्हें सुरक्षा मिली, न समय रहते मदद। यह स्थिति दर्शाती है कि महिला सुरक्षा सिर्फ़ योजनाओं और घोषणाओं तक सीमित है। जमीनी स्तर पर, चाहे 2006 हो या 2025, हालात एक जैसे ही हैं। इन दोनों मामलों के आईने में व्यापक तौर पर महिला सुरक्षा पर कई गंभीर सवाल खड़े होते हैं। डॉ. कविता चौधरी केस उस दौर का है जब देश ने अभी-अभी 21वीं सदी में कदम रखा था तब लगा था कि महिलाएँ आगे बढ़ रही हैं, परंतु सच्चाई यह थी कि उच्च शिक्षा जगत में भी स्त्रियाँ शोषण और हिंसा का शिकार हो सकती थीं। कविता ने अपने हित के लिए गलत रास्ता (ब्लैकमेलिंग) अपनाया या नहीं, यह बहस का विषय हो सकता है, लेकिन इससे इतर सत्य यह है कि आखिरकार एक महिला की हत्या कर दी गई और सिस्टम उसे जल्द न्याय नहीं दिला सका। मनीषा केस आज के समय का है। जब हम महिला सशक्तिकरण की बातें जोर-शोर से करते हैं, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे अभियान चलते हैं, उसी हरियाणा में एक 19 साल की पढ़ी-लिखी बेटी के संदिग्ध हालात में मारे जाने पर सारा प्रदेश उबल पड़ता है। लोग सड़कों पर आकर सवाल करते हैं कि नारों और योजनाओं के बावजूद हमारी बेटियाँ कितनी सुरक्षित हैं। मनीषा की मौत ने ताज़ा जख्म को कुरेद दिया है। डॉ. कविता चौधरी और मनीषा के मामलों की तुलना हमें दिखाती है कि दो दशक के अंतराल में तकनीक और जागरूकता भले बढ़ी है, मगर हमारे समाज में कुछ मूलभूत समस्याएं अब भी जिंदा हैं। असरदार लोगों द्वारा कानून से खिलवाड़, जांच एजेंसियों पर शक की सुई, न्याय में देरी, और सबसे बढ़कर महिलाओं की असुरक्षा। ऐसे में ये दुखद हकीकतें जारी हैं। हाँ, जनता की सहनशीलता अब कम हुई है और वे तत्काल जवाबदेही मांगते हैं, जैसा मनीषा केस में दिखा।