दशहरे का त्योहार पूरे देश में बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। रावण दहन के साथ लोग यह संदेश देते हैं कि अहंकार और अन्याय चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, अंत में सत्य और धर्म की ही विजय होती है। पूरे भारत में यह दिन हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है और लोग बड़े उत्साह से रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले जलाते हैं।
लेकिन उत्तर प्रदेश के कानपुर में दशहरे का रंग कुछ अलग ही होता है। यहां दशहरे के दिन रावण दहन नहीं किया जाता, बल्कि रावण की पूजा की जाती है। इस परंपरा को निभाने वाले लोग मानते हैं कि रावण कोई साधारण खलनायक नहीं था बल्कि वह एक महान विद्वान और शिव भक्त था। उनके लिए रावण केवल बुराई का प्रतीक नहीं बल्कि ज्ञान और शक्ति का भी प्रतीक है।
कानपुर के कुछ खास इलाकों में दशहरे के अवसर पर लोग रावण की मूर्ति या प्रतिमा बनाकर उसकी विधि-विधान से पूजा करते हैं। पूजा के बाद भजन-कीर्तन और विशेष अनुष्ठान किए जाते हैं। इस दौरान रावण की वीरता और विद्वता से जुड़ी कहानियां भी सुनाई जाती हैं, जिससे आने वाली पीढ़ियां उसके अलग स्वरूप को भी समझ सकें।
स्थानीय लोग मानते हैं कि रावण का नकारात्मक पक्ष ही नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि उसके सकारात्मक गुणों को भी याद करना जरूरी है। वह एक महाज्ञानी था, जिसने वेद-शास्त्रों का गहन अध्ययन किया और भगवान शिव का परम भक्त रहा। यही कारण है कि कानपुर के इस इलाके में दशहरे पर रावण दहन की जगह उसकी वंदना की परंपरा जीवित है।
इस अनूठी परंपरा के कारण कानपुर का दशहरा बाकी शहरों से बिल्कुल अलग नजर आता है। यह परंपरा लोगों को यह भी सिखाती है कि हर कहानी के कई पहलू होते हैं और हर चरित्र के अच्छे-बुरे पक्षों को समझना जरूरी है। जहां एक ओर देशभर में रावण दहन बुराई के अंत का प्रतीक है, वहीं कानपुर में रावण की पूजा उसके ज्ञान और भक्ति की याद दिलाती है। यही इस परंपरा की विशेषता है।