समुद्र मंथन और नीलकंठ की कथा
श्रावण माह की महिमा एक पौराणिक कथा से जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि जब देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया था, तब उसमें से अमृत से पहले एक अत्यंत घातक विष निकला हालाहल। यह विष इतना प्रचंड और ज़हरीला था कि यदि यह पृथ्वी पर फैल जाता, तो सारा संसार नष्ट हो जाता।
घबराए हुए देवता तत्काल भगवान शिव की शरण में पहुँचे। अपनी करुणा और जिम्मेदारी का परिचय देते हुए भगवान शिव ने वह ज़हर पी लिया, परंतु उसे शरीर में फैलने नहीं दिया। उन्होंने उसे अपने गले में रोक लिया, जिससे उनका कंठ नीला पड़ गया और तभी से उन्हें नीलकंठ कहा जाने लगा।
परंतु हालाहल विष की उष्णता इतनी तीव्र थी कि शिव जी के शरीर में भयंकर तपन होने लगी। तब देवगण, ऋषि, और गंधर्वों ने मिलकर शिव की पीड़ा को शांत करने का उपाय ढूँढ़ा। देवगुरु बृहस्पति ने सुझाव दिया कि शिवलिंग पर जल चढ़ाया जाए ताकि विष की गर्मी को कम किया जा सके। तभी से शिवलिंग पर गंगाजल चढ़ाने की परंपरा आरंभ हुई, जो आज भी सावन के महीने में पूरी श्रद्धा से निभाई जाती है।
सावन सोमवार और शिव पूजन की परंपरा
श्रावण मास के हर सोमवार को सावन सोमवार व्रत रखा जाता है, जो भगवान शिव को समर्पित होता है। भक्त शिव मंदिरों में जाकर जलाभिषेक करते हैं, “ॐ नमः शिवाय” का जाप करते हैं और शिवलिंग पर बेलपत्र, धतूरा, भांग और गंगाजल अर्पित करते हैं। यह महीना शिव भक्तों के लिए आत्म-शुद्धि, संयम और समर्पण का प्रतीक बन जाता है।
शिव से सीखें भीतर का विष रोकना ही असली भक्ति है
शिव जी ने ज़हर पीकर भी दुनिया को बचाया, पर उसे अपने भीतर ही रोके रखा। यही हमें सिखाता है कि जीवन में आने वाले विष जैसे क्रोध, ईर्ष्या, लोभ और द्वेष को अपने भीतर नियंत्रित करें, उन्हें बाहर न निकालें। दूसरों के लिए प्रेम, करुणा और शांति का मार्ग बनाना ही सच्ची शिव भक्ति है।